________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
५०२
विकृतिविज्ञान
फुफ्फुस यक्ष्मा के पश्चात् उत्पन्न होते हैं जब कि रोगी अपना ष्ठीव निरन्तर निगलकर इन विक्षतों का कारण स्वयं बनता है । उदरच्छद से ऊपर की ओर चलकर रोगाणु फुफ्फुस या श्वसनिकीय लसग्रन्थियों को उपसृष्ट कर सकते हैं फान बेहरिंग का कथन है कि शैशवकाल में यमदण्डाणु आन्त्रश्लेष्मलकला में प्रविष्ट होकर आगे आत्म-उपसर्ग (auto infection ) द्वारा फुफ्फुस - यचमा उत्पन्न कर सकता है ।
पहले हम कह चुके हैं कि फुफ्फुस - यचमा प्रायः मानवीय यचमादण्डाणु के द्वारा उत्पन्न होता है। रोगी अपने ष्ठीव को निरन्तर निगलता रह कर आन्त्रयक्ष्मा जब उत्पन्न करता है तब उसमें भी मानवीय प्रकार अधिकांशतः मिल जाता है । वहाँ यचमादण्डाणु का अड्डा विशेष तौर पर जमता है । आमाशय में यक्ष्मा का प्रसार बहुत कम ही देखा जाता है यद्यपि आमाशयिक तीक्ष्ण रस का उस पर कोई प्रभाव नहीं पड़ पाता । हृद्वान्त्र में जहाँ पेयरीय सिध्म और एकल लसकृपिकाएँ ( solitary follicles ) अधिक होते हैं वहाँ अर्थात् अधोभाग में इनका जमाव होता है । बृहदन्त्र में भी यक्ष्मविचत बहुत कम देखे जाते हैं ।
माता-पिता के द्वारा भी यक्ष्मा का प्रवेश गर्भावस्था में हो सकता है । सुश्रुत ने ७ प्रकार की व्याधियों का वर्णन करते हुए एक प्रकार आदि बल प्रवृत्ता व्याधियों का कहा है। इसमें वे व्याधियाँ आती हैं जो माता या पिता के शुक्रशोणित दोष से उत्पन्न होती हैं । ये भी दो श्रेणियों में कही हैं एक मातृजा और दूसरी पितृजा । य भी एक आदि बल प्रवृत्त व्याधि मानी गई है
1
4:5
'तत्रादि बलप्रवृत्ता ये शुक्रशोणितदोषान्वयाः कुष्ठाशःप्रभृतयः तेऽपि द्विविधा - मातृजाः पितृजाश्चेति ।" सु. श्रु. )
उपरोक्त वाक्य में कुष्ठार्श, प्रभृतयः में प्रभृतयः की व्याख्या करते हुए डल्हण ने यचमा या क्षय का भी उल्लेख किया है :
'ये शुकशोणितदोषान्वयाः इति, शुक्रशोणितस्थितवातादिदोष अनिताः । तानेव नामतो दर्शयति-- कुष्ठार्श, प्रभृतय इति । प्रभृति ग्रहणान्मेहक्षयादयः । मातृजा इति मातुः शोणितजाः, पितृजाश्व इति पितुः शुक्रजाः ।'
इस प्रकार जहाँ आयुर्वेद माता-पिता के द्वारा क्षयोत्पत्ति को स्वीकार करता है वहाँ आधुनिक भी कुछ कुछ इसे मानते हैं और विश्वास यह है कि कुछ काल में वे पूर्णतः प्राचीनों के विचार से सहमति प्रकट करने के अनुरूप अपने को पा सकेंगे । वे इस समय ऐसा कोई प्रमाण नहीं पा सके जिससे शुक्राणुओं ( spermatozoa ) द्वारा क्षयोपसर्ग का प्रमाण मिलता हो । परन्तु वे स्त्रीबीज ( ovum ) के द्वारा इसका प्रवेश सम्भवनीय मानते हैं । अपरा ( placenta ) से होकर यक्ष्मा के जीवाणु जाते हैं । इसका प्रमाण ब्वायद यह उपस्थित करता है कि उसने एक दिन की आयु के शिशु तथा मृतगर्भ ( still born ) की आन्त्रनिबन्धनीक ग्रन्थियों में यक्ष्मादण्डाशुओं को उपस्थित पाया है । वर्थिन तथा कोवी ने तो यह भी इङ्गित किया है कि
For Private and Personal Use Only