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ज्वर
४८६ के सम्मुख पाये जाते हैं। एकल लसपिण्डों से बने व्रण आकार में पूर्णतया गोल होते हैं।
आन्त्रिकज्वरजन्य व्रण का तल उपश्लेष्मल या आन्त्र की पेशी के स्तर से बनता है। किनारे या ओष्ठ फूले और अन्तःसुषिर (under mined ) होते हैं। व्रण ज्यों ज्यों गहरे होते जाते हैं त्यों त्यों उनमें उपश्लेष्मल के स्थान पर पेशीय तरातल देखने में आता है। कोई कोई व्रण अधिक गहरा बन जाने से सिरा या धमनिका तक उसमें फूट आती है और रक्तस्राव होने लगता है। उससे आगे बढ़े हुए व्रणों में आन्त्र की प्राचीर तक फूट जा सकती है। उस दशा को छिद्रोदर कहा जाता है। छिद्रोदर होने के साथ ही उदरच्छद में भी पाक हो जा सकता है। छिद्रोदर तथा उदरच्छदपाक ये दोनों रोग का अत्यन्य गम्भीरावस्था के सूचक माने जाते हैं।
रोग की तीव्रावस्था व्रणों की संख्या पर निर्भर न होकर विषमयता पर निर्भर करती है । पर छिद्रोदर स्वयं एक महाभयानक अवस्था है जिसका यदि तुरत शल्योपचार न किया गया तो रोगी के मरने में कोई सन्देह नहीं रह जाता।
छिद्रोदरादि प्रायः तुद्रान्त्र के अन्तिम भाग शेषान्त्रक ( ileum ) में १ फुट स्थल में जहाँ लसाभ ऊति बहुत अधिक मात्रा में होती है हुआ करते हैं।
आन्त्रिक ज्वर के व्रण प्रायः गहरे जाते हैं। वे पृष्ठभाग को अधिक न घेर कर गहराई में अधिक जाते हैं जो उनकी महत्त्वपूर्ण प्रवृत्ति होती है। ____४. संरोपणावस्था-तीसरा सप्ताह बीतते बीतते व्रणों का सब सड़ा गला भाग नष्ट होकर झड़ जाता है और चौथे सप्ताह में व्रणों का उपशम आरम्भ हो जाता है। सबसे प्रथम व्रणों की तली पर कणन अति या रोहण धातु बनने लगती है। जब वह पर्याप्त बन लेती है तब व्रणोष्ठों से आन्त्र की श्लेष्मलकला फैल कर रोपणकार्य पूरा कर देती है। इस प्रकार रोपित हुआ व्रण कोमल, थोड़ा निम्न और हलका लाल होता है। ये व्रण तान्तव ऊति से व्रणवस्तु नहीं बनाते इस कारण आन्त्र में उपसङ्कोच नहीं हुआ करता है। हाँ जब व्रण पेशी तक पहुँचा होता है तब वणवस्तु अवश्य बनती है और उपसंकोचन भी हो सकता है।
इस प्रकार आन्त्रिक ज्वर में आँतों में पहले सप्ताह में सूजन आती है दूसरे में संकोथ या सड़न होती है तीसरे में व्रण बनते हैं तथा चौथे सप्ताह में रोपण हो जाता है। ____ आन्त्रनिबन्धिनी लसीका ग्रन्थियों में लसवहाओं के द्वारा आन्त्रिक ज्वर के दण्डाणु पहुँचकर उनके आकार को कई गुना बड़ा कर देते हैं उनके भीतर का मज्जक भाग अति मृदुल हो जाता है उसकी आटोपिका को काट कर देखने से उसमें उतिनाश के कई केन्द्र देखने में आते हैं वे हरे पीले वर्ण के होते हैं। रोगोपशान्ति होने पर उनमें आत्मांशन द्वारा या स्नैहिक विहास के द्वारा उनका सुधार हो जाता है।
प्लीहा-आन्त्रिक ज्वर में प्लीहा आकार और भार दोनों में ही दो तीन गुनी
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