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४८७ • के कारण अल्पमूत्रमेह या अमूत्रमेह उत्पन्न होता है ऐसा कुछ तज्ज्ञों का मत है। . ११-आन्त्रिकज्वर ( Typhoid fever )-इसे आन्त्रज्वर, मन्थरज्वर, मन्थरक ज्वर, मधुरकज्वर, मधुरा, मौक्तिकज्वर, मोतीझरा आदि नामों से पुकारते हैं । इसका कारण एक तन्द्रा भी दण्डाणु ( bacterium typhosum ) होता है । यह दूषित खाद्यपेय पदार्थों के कारण होने वाला रोग है। मोतीझरा से उपसृष्ट रोगी के मल का सम्पर्क जहाँ-जहाँ प्रत्यक्ष वा अप्रत्यक्षतया हो जाता है वहीं यह फैलता है। रोगी और उससे भी अधिक महत्त्वपूर्ण वाहक इसके प्रसार में मुख्य कारण बनते हैं। ___ दूषित खाद्यपेयादि पदार्थों के द्वारा आन्त्रज्वर दण्डाणु मुख में होकर महास्रोत में पहुँचता है। यदि पेट खाली हुआ तथा आमाशय में अम्ल की कमी हुई अथवा खाने के साथ प्रचुर परिमाण में जल पी लिया गया जिससे अम्ल की दण्डाणु संहारक शक्ति का ह्रास हो जाता है तो वे दण्डाणु क्षुदान्त्र में प्रविष्ट हो जाते हैं। तुद्रान्त्र इनकी वृद्धि के सर्व सुख उपस्थित कर देती है। इस अनुकूल वातावरण के कारण वे यहाँ सुखपूर्वक वंश वृद्धि करते हैं। ये आन्त्र के सुषिरक में न बढ़ कर आन्त्र की प्राचीर में पाई जाने वाली लसात्मक ऊति (lymphatic tissue ) में उपस्थित स्थूलभक्षों ( macrophages ) तथा प्ररस कोशाओं . ( plasma cells) में बढ़ा करते हैं। लसात्मक ऊति तक इनके गमन की कहानी अभी तक अनुमान के बल पर गढ़ी गई है। उपश्लेष्मल लसाय कूपिकाओं ( submucous lymphoid follicles ) तथा आन्त्र निबन्धिनी की लसीका ग्रन्थियों में ये उपस्थित होकर अपने संचयकाल में वृद्धिगत हुआ करते हैं। वहाँ से ये रक्त की धारा में चले जाते हैं और जीवाणुरक्तता ( bactraemia ) उत्पन्न कर देते हैं। रोग के प्रथम सप्ताह में इसी लिए आन्त्रज्वर दण्डाणु को रक्तसंवर्द्ध के द्वारा प्राप्त किया जा सकता है। परन्तु दूसरे सप्ताह में जब इनको नष्ट करने की दृष्टि से रक्तरस में प्रतियोगी द्रव्यों का निर्माण आरम्भ हो जाता है तो फिर द्वितीय सप्ताह में और उसके आगे उनका रक्त में पाया जाना कठिन हो जाता है।
आन्त्रिक ज्वर की चार अवस्थाएँ साधारणतया स्वीकार की जाती हैं:१-तृणाणुमयता या दण्डाणुमयता-जब जीवाणु रक्त में पहुँचता है।
२-स्थानसंश्रयावस्था-जब रक्त में सञ्चार करने वाले जीवाणु पेयरीय तथा एकल लसपिण्डों ( peyer's and solitary lymph follicles ), प्लीहा, यकृत् , अस्थिमज्जा और जहाँ-जहाँ लसाभ कोशा मिल सकते हैं में अवस्थान करते हुए बढ़ते हैं और अपना विषैला प्रभाव प्रगट करते हैं। ३-प्रतीकारावस्था-जव आन्त्रदण्डाणु के लिए शरीर में प्रतियोगी द्रव्य बनना
आरम्भ करते हैं। ४-उपभमावस्था-जब ज्वर समाप्त हो जाता है और आन्त्रस्थ व्रणों का उपशमन
होने लगता है। रक्त में इसका दण्डाणु हो या न हो यह व्याधि एक तीव्र विषरक्तता की अवस्था
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