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ज्वर
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बचते नहीं उनकी आरम्भिक कुण्डलिका के अधिच्छदीय कोशाओं का अपजनन हो जाता है वहाँ शोथ और ऊतिनाशादि के कारण शुक्किमेह बन जाता है रक्तमेह और मूत्रविषमयता भी खूब बनते हैं । केशिकाओं के अन्तश्छद में अपजनन के कारण remara होता है । आमाशय की श्लैष्मिक कला में रक्तस्त्राव के कारण कालावमन होता है । इसका वर्ण कहवे जैसा होता है । हृत्पेशी में अपजनन के कारण तथा हिज hafore में खराबी पड़ने से रोगी की नाडी की गति मन्द पड़ जा सकती है । मस्तिष्क में भी कहीं न कहीं रक्तस्राव देखा जा सकता है। मस्तिष्क - सुषुम्ना जल की मात्रा बढ़ कर उसका पीडन मस्तिष्क पर प्रभाव डाल सकता है । उदर की लसग्रन्थियाँ भी बढ़ जाती हैं । रक्त के चित्र को देखने से आरम्भ में बह्वाकारि श्वेतकण की संख्या बढ़ जाती है । लसकायाणु कम हो जाते हैं उषसिप्रिय लुप्त हो जाते हैं बाद में श्वेतकायाणुओं का अपकर्ष तथा एक न्यष्टि श्वेतकणोत्कर्ष होता है ।
३ - तन्त्रिकज्वर ( Typhus fever ) — इसे बन्दी गृह ज्वर, अकाम ज्वर अथवा शिविरज्वर इन नामों से बोला करते हैं । तन्द्रिकज्वर यूका, पिस्सू, किलनी और कुटकी इन जीवों के द्वारा फैलता है और चारों ही प्रकार का होता है । तन्द्रिक - ज्वर से पीडित रोगी को यदि कोई यूका या जूँ काट लेता है तो इस रोग के कारक रिकैट्सियावर्ग के सूक्ष्म जीवाणु उसकी मध्यान्त्र में प्रवेश कर जाते हैं । मध्यान्त्र की अधिच्छदीय कोशाओं में पुनः प्रवेश कर परिवर्द्धित होने लगते हैं ५-७ दिन बाद वे कोशा तोड़ कर आन्त्र में आजाते हैं और वहीं से मल द्वारा उत्सर्गित हुआ करते हैं । यह यूका का मल स्वस्थ शरीर के ऊपर त्वचा पर गिरता है और यदि त्वचा में कोई खरोंच या विदार हुआ तो उसके द्वारा जीवाणु शरीर के अन्दर प्रवेश पाजाते हैं। आयुर्वेद
fare स्नान और धौत वस्त्रों के पहनने पर जो इतना जोर दिया गया है उसका यदि नियमतः पालन किया जावे तो तन्द्विकज्वर किसी भी भारतवासी को नहीं हो सकता । यतः यह परम्परा वर्षो स्थित रही इसी से यह ज्वर अपने देश में बहुत ही कम पाया जाता है । पिस्सू के शरीर में यूका के बराबर इस जीवाणु की वृद्धि नहीं हुआ करती । किलनी ( tick ) में तन्द्रिकज्वरकारी जीवाणु की बहुत अधिक वृद्धि हुआ करती है कोई भी धातु या ऊति ऐसी नहीं छूटती जहाँ इसका प्रवेश और वृद्धि न होती हो । कुटकी (mite ) को रोग के जीवाणु चूहों से मिलते हैं जिनके ऊपर वह निवास करती है |
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यूका का मल जब शरीर पर लग जाता है और त्वचा के किसी विदार के द्वारा जब वह शरीर में प्रवेश कर जाता है तो फिर रक्तवहाओं और लसवहाओं द्वारा उसका प्रसार सम्पूर्ण शरीर में होता है। धमनियों और केशालों के अन्तःस्तर में वे प्रवेश करके अन्तश्छदीय कोशाओं में बढ़ते और विष का निर्माण करते हैं । इनसे युक्त कोशा भी प्रगुणित हो जाते हैं । इस दुहरी वृद्धि के कारण रक्तवाहिनियों में गांठें बन जाती है जिन्हें तन्द्रिक ग्रन्थियाँ कहा जाता है । रक्तवहाओं के बाह्यावरण में प्ररस कोशा तथा लसकोशाओं की भी भरमार पाई जाती है । जिन कोशाओं में यह विकृति
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