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ज्वर
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तथा अपने कार्य यथावत् करने में असमर्थ हो जाते हैं । जालकान्तश्छदीय संस्थान का कार्य, लाल कणों का निर्माण, श्वेत कणों का निर्माण, शरीर की प्रतीकारिता शक्ति की वृद्धि करना और विकारी जीवाणुओं की उपस्थिति होने पर प्रतियोगियों का तैयार करना आदि होता है । कालाजार में ये सभी कार्य बिगड़ जाने से रक्त के लाल कण पूरे पूरे नहीं बन पाते और रोगी को अरक्तता बढ़ जाती है रक्तक्षय के कारण शरीर कृश हो जाता है । श्वेत कर्णों की कमी से श्वेत कणापकर्ष ( leucopenia ) इस रोग का प्रमुख लक्षण बन गया है। इससे शरीर की प्रतीकारिता शक्ति भी बहुत घट जाती है और रोगी को कोई न कोई अन्य उपसर्ग लग सकता है। प्रति दोनों द्रव्यों की उत्पत्ति भी यथोचित न होने से शरीर का सुरक्षा विभाग दुर्बल पड़ जाता है । उपचूर्णरक्तता तथा कायाण्वपकर्ष के कारण रक्त में घनास्त्र तथा रक्तस्त्रावी प्रवृत्ति बढ़ जाती है ।
यह हम अभी कह चुके हैं कि कालाजार में जालकान्तश्छदीयसंस्थान के प्रत्यङ्गों की कोशाएँ बढ़ती हैं और कीटाणुओं से भरी रहती हैं इसके कारण ये प्रत्यङ्ग प्रवृद्ध हो जाया करते हैं। प्लीहा जालकान्तश्छदीयसंस्थान में प्रमुख स्थान ग्रहण करती है अतः यह सर्वाधिक प्रवृद्ध हुआ करती है । यह तोल में साढ़े तीन सेर तक बढ़ जाती है ( सामान्यतया प्लीहा का भार ढ़ाई छटाँक ही हुआ करता है ) आरम्भ में वह मृदु होती है पर ज्यों-ज्यों रोग की जीर्णावस्था आती जाती है वह कठिनतम बनती जाती है । उसकी आटोपिका ( capsule ) में कठिनता बढ़ा करती है वह स्थूल भी होती चली जाती है। प्लीहा के कोशाओं में परमचय ( hyperplasia ) तथा अधिरक्तता दोनों देखे जाया करते हैं। डा. घाणेकर के अनुसार कुछ लोगों का ऐसा भी अनुमान है कि कालाजार के रोगी में प्लीहा के भार का पचमांश कीटाणुओं का ही होता है । परिप्लीहपाक ( perisplenitis ) तथा ऋणास्त्र ( infarcts ) की उपस्थिति भी उसमें पाई जा सकती है। प्लीहा के पश्चात् दूसरा स्थान यकृत् का है । यकृत् की भी वृद्धि होने लगती है पर वह प्लीहा के मुकाबले कम ही रहती है । यदि रोग बहुत काल तक चला तो प्लीहा और यकृत् दोनों एक बराबर प्रवृद्ध देखे जा सकते हैं । यकृत् का वर्ण जायफल ( nutmeg ) के समान स्याही लिए भूरा हो जाता है । यकृत् दृढ़ और क्षोद्य ( friable ) हो जाता है उसकी आटोपिका भी स्थूलित हो जाती है यकृत् में जालकान्तश्छदीयसंस्थान का भाग कूफर की कोशायें होती हैं जिनकी असंख्य गुनी संख्यावृद्धि हो जाती है तथा वे कालाजार के कीटाणुओं से ठसाठस भरी हुई होती है उनके भार और दबाव का परिणाम यह होता है कि याकृत्कोशा अपुष्ट हो जाते हैं और आगे चलकर अन्तर्खण्डीय तन्तूत्कर्ष ( intralobular fibrosis ) हो जाती है सिरोसिस जिसका अन्तिम रूप है ।
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अस्थिमज्जा प्रायः लाल और मृदु होती है उसमें मेद ( fat ) को कमी हो जाती है। इसमें भी कोशाभिवृद्धि पर्याप्त होती है । उसकी रक्तोत्पादक उति में कमी
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