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विकृतिविज्ञान
होने लगती है कोशाओं के अन्दर यहाँ भी कीटाणु बहुत बड़ी संख्या में भरे पड़े
रहते हैं ।
यदि रोग सौम्य हुआ तो कोई बात नहीं अन्यथा लसीकाग्रन्थियाँ खूब फूलती है। विशेषकर आन्त्रनिबन्धनी ( mesentery ) की लसग्रन्थियाँ खूब बढ़ती है। उनमें भी कीटाणु पाये जाते हैं पर उनकी संख्या कम होती है । लसीकाग्रन्थियों के केन्द्रभाग में ऊतिनाश ( central necrosis ) पाया जाता है । लसग्रन्थियों के अतिरिक्त गले में, क्षुद्रान्त्र में तथा अन्यत्र भी जो लसाभ ऊति होती है उसकी अभिवृद्धि होती है तथा उसमें कीटाणुओं की उपस्थिति भी देखी जा सकती है । इसी कारण गले और नासा के स्रावों तथा मल तक में कालाजार के कीटाणुओं की उपस्थिति की खोज की जा सकती है ।
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रोगी का हृदय भी विस्फारित हो जाता है तथा वह कुछ लथ ( flabby ) भी पाया जाता है | स्थूलान्त्र में व्रण तथा अतीसार जैसे लक्षण भी देखे जा सकते हैं ।
इनके अतिरिक्त वृक्क, अधिवृक्क, फुफ्फुस, अग्न्याशयादि अंगों के अन्दर भी विकृति आ जाती है । मस्तिष्कसंस्थान इस रोग से अछूता रहता है । पर जीर्ण रोगी की त्वचा में रोगोत्तर काल में कालज्वरोत्तर लीशमनीयता पाई जा सकती है ।
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कालाजार में रक्तगत विकृति के सम्बन्ध में हम डा० घाणेकर की पुस्तिका औपसर्गिक रोग से कुछ तथ्य संग्रह करके निम्न पंक्तियों में रख देते हैं :
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१ - रोग के उत्तर काल में रक्त के लाल कणों की कमी २५ लाख तक हो जाती है !
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उक्त कमीका कारण अस्थिमज्जागत रुधिरोत्स्फोटक उति ( erythroblastic tissue ) का नाश होता है ।
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२ -- लालकणों की कमी के साथ शोणवर्तुलि ( haemoglobin ) की कमी होने से रंगदेशना ( colour index ) हो जाती है ।
३---- वेतकर्णो की संख्या का घटना — श्वेतकायाण्वपकर्ष का क्रम निम्न चलता है( अ ) ९५ प्रतिशत रोगियों में – ३००० से कम
-२००० ""
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१००० ""
४ --- स्वस्थावस्था में श्वेतकायाणु एक होने पर ७५० लालकण पाये जाते हैं । कालाजार में यही अनुपात १ : १५००-२००० तक चला जाता है ।
१३- कालाजार में बह्वाकारी ( polymorph ) घटते हैं लसकायाणु तथा एक कायाणु बढ़ते हैं तथा उपसिप्रिय दिखलाई नहीं देते !
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६—रक्तचक्रिकापकर्ष ( thrombocytopenia ) भी होता है जिसे धनात्रarraoर्ष कहते हैं ।
७-रक्त के रासायनिक संघटन में भो बड़े परिवर्तन देखने में आते हैं यथा
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