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विकृतिविज्ञान
से फुफ्फुस से जाने वाली प्राणवायु को ग्रहण करने की शक्ति रक्त के पास कम होती जाती है जिसके कारण अजारकमयता ( anoxaemia ) जिसे अजारकरक्तता भी कह सकते हैं उत्पन्न हो जाती है । रक्तसंचार में बाधा पड़ने से भी यह स्थिति बन सकती है । विषमज्वर या मलेरिया में हम देखते हैं कि शोणवतुलि का नाश और लाल कर्णो का सत्यानाश जितना खुलकर होता है उससे कम केशालों के अन्तश्छद में प्रवृद्ध विषम कीटाणुओं के द्वारा हुए मार्गावरोध के कारण बनी रक्तसंचार की बाधा नहीं होती । रक्तसंचारगत बाधा और लालकणों की कमी इन दोनों कारणों के उपस्थित होने के फलस्वरूप शरीर में अजारकरकता पर्याप्त पाई जाती है। मारक विषमज्वर में ये दोनों कारण प्रचुरता से होने से मस्तिष्क, हृदय आदि मर्माङ्गों में अजारकरक्तता होकर मृत्यु का कारण उपस्थित हो जाता है । विषमज्वर जीर्णस्वरूप का हो जाने पर अजारकरक्तता मन्दस्वरूप की हो जाती है जिसके कारण कृशता, क्षीणता वा दुःस्वास्थ्य ( cachexia ) की स्थिति बनती है। डा. घाणेकर का कथन है कि विषम ज्वर में जितनी भी विकृतियाँ देखने में आती हैं उनका प्रधान कारण अजारकरक्तता या एक्जीमिया ही है अन्य कारणों का अधिक महत्त्व नहीं है । इस प्रकार मलेरिया की सम्प्राप्ति की दृष्टि से अजारकरक्तता केशालावरोध, बहुपित्तता ( polycholia ), भक्षकायात्कर्ष, ज्वरोत्पत्ति, विषैले पदार्थों की सञ्चिति तथा कीटाणु का धात्वाश्रयी होना इन ६ बातों की ओर ही विशेष लक्षण किया जाता है। अब हम अंग प्रत्यंगों की विकृति की दृष्टि से थोड़ा विचार और किए लेते हैं ।
प्लीहा पर विषमज्वरीय कीटाणु का सर्वाधिक प्रभाव पड़ता है। मारात्मक स्वरूप के विषमज्वर में जब रोगी तुरत मर जाता है उस समय उसकी प्लीहा की मृत्यूत्तर परीक्षा करने पर उसमें अधिरक्तता ( hyperaemia ) के अतिरिक्त अन्य कोई महत्व की विकृति देखने को नहीं मिलती है उसका आकार कोई खास नहीं बढ़ पाता उसका गोर्द अत्यन्त मृदुल रक्तस्रावी काला और डा. घाणेकर के शब्दों में विप्रवाही ( diffluent ) होता है जिसे पानी के साथ प्रवाहित किया जा सकता है प्लीहा की आटोपिका तनु एवं तनी हुई देखी जाती है ।
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जब विषमज्वर कुछ कालतक जारी रहता है तो प्लीहा में रागक तथा उपसृष्ट areer के अधिकाधिक सञ्चय के कारण वह और भी काले वर्ण की हो जाती है । उसका आकार भी पर्याप्त बढ़ जाता है | अधिक जीर्ण विषमज्वर होने पर स्थूलभक्षक ( macrophages ) की उपस्थिति के कारण उसका आकार और भी स्थूल हो जाता है । जीर्ण विषमज्वर में लैह आटोपिका मोटी और अपारदर्शक हो जाती है । कभी-कभी वह समीपस्थ अङ्गों के साथ अभिश्लिष्ट हो जाती है । ज्वरावेग काल में कुछ अपने आकार से अधिक बढ़ी हुई प्रगट होती है और जब ज्वर उतर जाता है तब उसका आकार कुछ घट जाता है । यह घट-बढ़ बहुत अधिक नहीं होती । ter का आकार अधिक जीर्ण विषम या एकबार विषमज्वर ठीक होने पर पुनः पुनः उपसर्ग लगते चले जाने पर इतना अधिक बढ़ जा सकता है कि फिर उसे मोहोदर
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