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विकृतिविज्ञान
केन्द्रिय वातनाडीसंस्थान में मारात्मकस्वरूप के विषमज्वर में ही विकृति होने की सम्भावना मिलती है । तृतीयक और चतुर्थक ज्वरों के कारण नाडीसंस्थान पर कोई प्रभाव पड़ता हुआ नहीं देखा जाता है । जब विषमज्वरीय मारात्मक कीटाणुओं से लदे लाल कर्णों को लेकर रक्त मस्तिष्क में पहुँचता है तो वह सूक्ष्म care को अवरुद्ध करता तथा बड़ी धमनिकाओं को विस्फारित कर देता है । रक्त के साथ-साथ रागक के कण भी पाये जाते हैं । सकीटाणु लाल कण और रागक ये दोनों मिलकर मस्तिष्क के स्वक्षीय भाग को सीधातु के समान काला बना देते हैं । जहाँ रागक के कण सञ्चित होते हैं वहाँ विन्द्वाकार ( punctiform ) रक्तस्त्राव होता है । यह रक्तस्राव अनुत्वतीय श्वेत भाग में होने के कारण वह कर्तुरित हो जाता है । विषमज्वर के कारण जिनकी मृत्यु होती है उनकी मृत्यूत्तर परीक्षा यह बतलाती है कि मृतकों के मस्तिष्क का श्वेत भाग असंख्य छोटे-छोटे रक्तस्रावों से भरा होता है । केशलावरोध तथा रक्तस्रावों के कारण अत्यधिक सन्ताप ( hyperpyrexia ) "विसंज्ञता, संन्यास, तन्द्रा, आक्षेप, मूकता तथा अंगघातादि लक्षण प्रगट हुआ करते हैं ।
हृदय में भी विकृति का कारण विषमज्वर का मारात्मक कीटाणु ही हुआ करता है । हृदय की रक्तवाहिनियों में कीटाणुओं से लदे रक्त के लाल कण पहुँचते हैं । हृदन्तश्छद के नीचे नीलोहाङ्कित रक्तस्राव पाये जाते हैं। सूक्ष्म केशाओं के अवरोध से हृत्पेशी पाक, स्नैहिक भरमार या विहास अथवा हृत्पेशी तन्तुओं का नाश आदि विकृतियाँ पाई जाती हैं ।
महास्रोत में सारिकाओं ( villi ) के केशाल कीटाणुओं से लदे लाल कणों से विस्फारित तथा अवरुद्ध हो जाया करते हैं जिसके कारण श्लेष्मावरण सूज जाता है जगह-जगह रक्तस्राव और व्रण हो जाते हैं इन व्रणों में आन्त्रस्थ पूयजनक जीवाणुओं का द्वितीयक उपसर्ग हो जाता है परिणामस्वरूप अतीसार, विसूची इत्यादि के समान उक्षण भी पाये जा सकते हैं। इसको शीताङ्ग विषमज्वर ( algid malaria ) कहते हैं। वृक्कों में मारात्मक विषमज्वर तथा चातुर्थक में भी वृकपाक की सम्भावना हुआ करती है । रोग की तीघ्रावस्था में वृक्कों में रक्ताधिक्य पाया जाता है और बोमन की आटोपिकाओं में कीटाणुयुक्त लाल कणों की भरमार मिलती है । वृक्क कुण्डलिकाओं ( convoluted tubules ) के अधच्छदीय कोशाओं में विहास या ऊतिनाश पाया जाता है । गम्भीरस्वरूप के विषमज्वर के कारण कुण्डलिकाओं की नालियाँ शुक्कीय निमकों ( albumin casts ) तथा रक्तस्त्रावों से भरी हुई पाई जाती हैं। वृक्कों में रागक का मल बहुत ही कम पाया जाता है । वे आकार में बढ़ जाते हैं और उनका पृष्ठभाग चमकीला हो जाता है ।
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फुफ्फुसों में कीटाणुओं से लदे लाल कणों की भरमार मिलती है । फुफ्फुसों में रक्ताधिक्य मिलता है और स्थूलभक्ष अन्तःस्तरीय या अन्तश्छदीय कोशाओं की भी भरमा पाई जाती है । रागक के कारण उनका वर्ण काला पड़ जाता है । इनके कारण रोगी की क्षमता शक्ति घट जाती है और उसे श्वसनी फुफ्फुसपाकादि व्याधियाँ लग जा सकती हैं ।
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