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ज्वर
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इस समय १०४ तक गया हुआ ज्वर समतल पर आ जाता है। जब तक उत्कणिक या उदविक अवस्था रहती है ज्वर की वृद्धि नहीं होती पर उत्पूयिकावस्था में पुनः ज्वर बढ़ने लगता है जो रोगारम्भ के १० दिन बाद पड़ती है। ज्वर को द्वितीयक ज्वर (secondary fever) कहते हैं चेचक के दाने भद्दे लाल उत्कणों के रूप में जन्म लेते हैं जो पहले पहल माथे पर निकलते हैं जहाँ से वे चेहरा, कलाइयाँ और पैरों तक जाते हैं। ये उत्कण चमड़े के ऊपर चमड़े में होते हैं। ये काफी कड़े और दृढ़ होते हैं। अस्थियाँ जहाँ निकलती हुई हैं वहाँ झुण्ड बना लेते हैं। ऐसे इनके झुण्ड कपोलों पर, कुहनी के नीचे कलाई पर देखे जाते हैं। चेचक का उत्कोठ एक दिखावट पसन्द करने वाला उत्कोठ है जो पहाड़ की चोटियों पर तो मिलता है घाटियों में नहीं अर्थात् शरीर के गर्तमय भागों की अपेक्षा उघरे और उठे भाग पर अधिक देखी जाती हैं । चेचक में मुख पर अधिक विक्षत मिलेंगे पर त्वङ्मसूरिका में मुख की अपेक्षा अन्य भागों पर विक्षतों की अधिकता पाई जावेगी। चेचक के उत्कोठ सदैव केन्द्रापग ( centrifugal ) होते हैं वे दृढ़ और स्वतन्त्र ( unyielding ) होते हैं। उद्वाणुत्पूयावस्था में दबाने से वे फटा नहीं करते । इनका विकास नियमित होता है तीसरे दिन उत्कण बन जाते हैं ५ वें से ९ वें दिन तक उद्दव और ९ से १२ वें दिन तक उत्पूय युक्त उत्कोठ बना करते हैं। जिस प्रकार कि रोमान्तिका के उद्वर्ण ( macules ) मिल जाते हैं इस प्रकार चेचक के उत्कण मिलते नहीं। त्वङ्मसूरिका के उत्कोठ केन्द्राभिग (centripetel ) होते हैं।
फिरंग के द्वारा भी कई प्रकार के दाने निकलते हैं। ये दाने कपड़ों के नीचे छिपे रहने वाले भाग में निकलते हैं। अर्थात् वे मुखड़ा या कलाइयों पर नहीं निकलते । इसके उत्कण चेचक के उत्कणों से बड़े और अधिक चिपटे होते हैं। उनमें कुछ विशल्कित हो जाते हैं उनपर हलका ताम्रवर्ण ( coppery colour) चढ़ा होता है। उनमें कुछ उत्पूयिक भी हो जाते है इनमें खुजली नहीं पड़ती। उनमें कुछ तो अति रूपीय (pleomorphic ) होते हैं। सम्पूर्ण शरीर में लसग्रन्थिपाक पाया जाता है गुप्ताङ्गों में प्रथम विक्षत का इतिहास मिलता है तथा फिरंग के अन्य लक्षण मिलते हैं।
शीतपित्तावस्थाओं में उत्कणीय उत्कोठोत्पत्ति पर्याप्त भ्रमोत्पत्ति कर देती है वे केन्द्रापग नहीं होते।
अब हम विविध ज्वरों की विकृति का संक्षेप में वर्णन करते हुए आगे बढ़ेंगे। इन ज्वरों में बहुतों का वर्णन पुस्तक में पीछे हो चुका होगा पर हम यहाँ एक संक्षेप विवरण प्रत्येक ज्वर का हम एक ही स्थान पर प्रगट करते हैं:
१-दण्डकज्वर-( Dengue fever )-यह एक उष्णकटिबन्धीय रोग है जो मशकों द्वारा फैलता है। दण्डकज्वर से पीडित रोगी के रक्त में तीन दिन तक इस रोग का कर्त्ता विषाणु रहता है। जैसे ही मशक या मच्छर इस काल में उसे काटता है यह विषाणु मच्छर में प्रवेश करके ११ दिन में पनपता है और तब यदि मच्छर
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