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विकृतिविज्ञान में आती है। रक्तिमायुक्त उत्कोठ की उत्पत्ति रक्तरस के टीके के कारण भी हो सकती है। चेचक का प्रारम्भ भी रक्तवर्णीय उत्कोठ के रूप में ही होता है। चेचक जिस रोगी को होने वाली होती है उसके आरम्भिक ४८ घण्टों में प्रतिश्यायात्मक लक्षण मिलते हैं तीव्रज्वर, जाड़ा, कटिशूल, दौर्बल्य ये लक्षण उत्पन्न हो जाते हैं फिर दाने निकलते हैं जो कटि प्रदेश या हाथ पैरों में देखे जाते हैं। इसे आरम्भिक उत्कोठ ( prodromal rash) कहते हैं यह लाल वर्ण का ( scarlatinaform ) होता है । स्थानिक रोमान्तिकीय ( morbilliform ) उत्कोठ भी बन सकता है। ये दोनों प्रकार के उत्कोठ तीसरे दिन जब चेचक की वास्तविक मसूरियाँ निकलती हैं लुप्त हो जाते हैं। सर्वाङ्गीण रोमान्तिकीय उत्कोठ का एक रूप महाचिंगटीय (lobster form) होता है। रोगी को उच्च ताप होता है और उसके दानों का वर्ण दुबले हुए महाचिंगटो का सा होता है। यह रूप प्रायशः असाध्य और देखने में भयानक हुआ करता है। एक दूसरे प्रकार का उत्कोठ जिसे नीलोहांकीय स्फोट (petechial earuption) कहते हैं वह कमर के क्षेत्र में उत्पन्न होता है जिसे फ्रांसीसी बाथिंगड्रायर्स राश कहते हैं । इसका आधार संगम (symphysis ) होता है वहाँ से यह बगल तक त्रिकोण रूप में फैलता है । नीलोहाङ्क शरीर में भी इतस्ततः फैलते हैं। ___ अलर्गी के कारण ज्वर विरहित उत्कोठोत्पत्ति होती है। इनके साथ जर्मन रोमान्तिका की भाँति प्रतिश्याय या प्रसेकी लक्षण या लोहित ज्वर के समान मुख या जिह्वागत लक्षण नहीं मिला करते ।
त्वङ् मसूरिका में भी प्रारम्भिक लोहित ज्वररूपी दाने पाये जाते हैं। कतिपय ओषधियों के कारण जिनमें शुल्बौषधियाँ भी हैं उत्कोठोत्पत्ति हो सकती है। ग्रन्थिक ज्वर में भी उत्कोठ मिलते हैं । की देन तन्द्रिकज्वर में भी कई प्रकार के उत्कोठ बनते हैं जिनमें गुलाबी सिध्म बनते हैं जो बाद में भूरे हो जाते हैं और दबाने से लुप्त नहीं होते । नीलोहाङ्क जैसे पिस्सु काटता है बनते हैं वे बैंगनी (नीलोह ) रंग के होते हैं। त्वचा के नीचे बहुरंगापन जो बगल और कमर (groin) क्षेत्रों में बन जाते हैं। इसमें रोगी की जिह्वा छोटी सिकुड़ी तोते जैसी होती है। नेत्र सुर्ख और पुतलियाँ छोटी हो जाती हैं रोगी की बुद्धि में कमी आती जाती है।
अति कुन्तलाणूत्कर्ष में भी रक्तिमायुक्त उत्कोठ देखे जा सकते हैं।
अन्य विभिन्न उत्कोठ-उत्कोठों के अन्य तीन प्रकार और प्रसिद्ध हैं जिनमें एक उत्कणीय ( papular ), दूसरा उद्दविक ( vesicular ) तीसरा उत्पूयिक ( pustular ) उत्कोठ कहलाता है। ये तीनों उत्कोठ पृथक पृथक भी होते हैं और मिलाकर भी जैसे उत्कणोत्पूयिक ( papulovesicular ) उत्कोठ आदि ।
चेचक या मसूरिका में सदैव दोनों की एक सी अवस्था रहती है। पहले सब उत्कणीय अवस्था में रहते हैं फिर उविक या उत्पूयिक अवस्था आती है । आरम्भ के दो दिन शिरोवेदना, कटिशूल, दौर्बल्य और ज्वर के बाद तब चेचक के दाने निकलते हैं।
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