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ज्वर
४६३ वेलामय ( Weil's disease ) चूहे से फैलता है। चूहे के मूत्र द्वारा इस रोग का जीवाणु अतिकुन्तलाणु ( leptospirillum ) बाहर आता है। मनुष्य की त्वचा से उसका स्पर्श होने पर वेलामय ( weil's disease ) का आरम्भ एक तीव्र रोग के रूप में होता है जिसमें खूब बुखार चढ़ता है, शिरोवेदना होती है, ग्लानि रहती है तथा उदर शूल भी रहता है। साथ में उद्वर्णिक कोठ ( erythematous rash) बन सकता है। पाँचवें दिन कामला (jaundice ) उत्पन्न हो जाता है जो बढ़ता चलता है। यकृत् बढ़ जाता है तथा स्पर्शासहिष्णु हो जाता है। प्लीहा भी बढ़ी हुई मिलती है। त्वचा में तथा श्लेष्मलकला में रक्तस्राव मिलते हैं। यदि रोगी बच गया तो उसे ज्वर ७ से १० दिन तक रहता है। पर एक सप्ताह के बाद रोगी को ज्वर का विश्राम मिल कर पुनः ज्वर उत्पन्न हो जाता है। इस रोग में ३०% तक बीमार मर जाते हैं । अतः चूहों का विनाश वा उसके मूत्र से शरीर की रक्षा करना सर्वप्रथम महत्व का प्रतिषेधक उपचार है जिससे समाज की रक्षा की जा सकती है।
अविरामज्वर का एक उदाहरण अनुतीव्र जीवाण्विक हृदन्तःपाक ( sub acute bacterial endocarditis) है। यह निस्सन्देह एक मारक व्याधि है । आमवातीय हृत्कपाटीया व्याधि या हृदय की एक सहज दशा के कारण मालागोलाणुशोणहरित ( streptococoi virdans ) के द्वारा उपसृष्ट हृदय के द्वारा यह रोग होता है। इसमें अविराम ज्वर चिरकाल तक चलता है साथ में जाडा आता है नाडी की गति द्रत रहती है, प्लीहा बढ़ जाती है, नीलोहाङ्क (petechiae) तथा औदरिक वा वपावाहक धमनियों की अन्तःशल्यता के कारण बन्द हो जाना भयानक घटनाएँ देखी जा सकती हैं। अँगुलियों के गूदों में शूलकारक गाँठों का होना भी अन्तःशल्यता का स्पष्ट प्रमाण हैं । आज यह रोग मारक नहीं रह गया । आन्त्रिकज्वर और इस ज्वर में पर्याप्त अन्तर है। इससे पीडित रोगी का मुख मैला होगा और नाडी भरी हुई तथा तेज होगी। आन्त्रिकज्वर के रोगी का मुख चमकता, सुख और नाडी मन्द होगी । हृदय की मर्मरध्वनियों की वृद्धि हृद्मान्द्यक्षेत्र की विस्तृति और यकृद्दाल्यूत्कर्ष तथा अन्य अन्तःशाल्यिक प्रमाण अनुतीव्र जीवाण्विक हृदन्तःपाक के रूप को भले प्रकार प्रगट कर देते हैं। ___ अविरामज्वर का एक कारण औपसर्गिक यकृत्पाक भी हुआ करता है। पैनसकामला ( catarrhal jaundice ) एक विषाणु द्वारा फैलने वाला रोग है। यह रोग शीत या जाड़ा लगकर आरम्भ होता है। साथ में हल्लास भी रहता है और वमन भी होती है। तीसरे या चौथे दिन वमन होती है। ज्वर साधारण मिलता है। रोगी बहुत बीमार नहीं मालूम पड़ता। यदि कामला अधिक बढ़ने लगे तो वेलामय का विचार करना नहीं भूलना चाहिए।
जब मानवीय रक्तरस (सीरम) किसी विशिष्ट विषाणु से उपसृष्ट हो चुका हो और जब उसका टीका मनुष्य के शरीर में लगा दिया जावे तो फिर उसके कारण रक्तरसजन्य यकृत्पाक ( serum hepatitis ) उत्पन्न हो जाती है । इसे औपसर्गिक
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