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ज्वर. यचिमक उदरावरणपाक ( Tuberculous peritonitis ) वह अन्य अवस्था है जिसमें अविरामज्वर बना करता है। यक्ष्मा से पीडित रोगी की आयु १८ से ३० वर्ष की होती है। ये निर्धनवर्ग के व्यक्ति होते हैं जिन्हें पर्याप्त भोजन प्राप्त नहीं हो पाता है। ये पीले पाण्डु या अरक्तता से पीडित होते हैं इनके पेट निकले हुए होते हैं। इन्हें ज्वर विषमतया आता है। यह उबर शुल्बौषधियों या कूर्चकि (पेनीसिलीन:) आदि से शान्त नहीं होता। इससे पीडित बहुधा स्त्री ही मिला करती है। उनका पेट निकला हुआ होता है वह पर्याप्त कठिन होता है। उदर में स्पर्शसह लसग्रन्थियाँ पाई जाती हैं साथ-साथ जलोदर भी होता है।
यचिमक मस्तिष्कावरण पाक ( Tuberculous Meninigtis ) भी अविरामज्वर करने वाली व्याधि है । यहाँ ज्वर विषमतया आता है पर बराबर बना रहता है और नाडी की गति मन्द रहती है। यहाँ शिरोवेदना के साथ प्रलाप रहता है। आन्त्रिक ज्वर की शिरोवेदना जहाँ सात दिन में तिरोहित हो जाती है और आन्त्रिक्रज्वर की दूसरी अवस्था में प्रलापारम्भ होता है पर यहाँ प्रलाप और शिरःशूल साथ साथ ही चलते हैं। यहाँ अतीसार या आध्मान कभी नहीं पाया जाता। इस रोग में तन्द्रा आरम्भ से ही रहती है जब कि आन्त्रिक ज्वर प्रथम या द्वितीय सप्ताह के पश्चात् आती है । इस रोग में पेट अन्दर की ओर धंस जाता है जिसे नैयाकाराकृति (Sca phoid appearance ) कहा जाता है। यहाँ अतीसार या अन्य औदरिक प्रक्षोभ नहीं पाया जाता। ग्रीवा इस रोग में बहुत जकड़ी हुई मिलती है। पलकों का बन्द रहना (ptosis), पुतलियों के आकारमें विषमता होना, अर्दित, तथा द्विधादृष्टि ( diplopia) वे वातनाडीसंस्थान के लक्षण हैं जो इस रोग में बहुधा मिलते हैं। इस रोग में ३ री और ७ वीं शीर्षण्या नाडियाँ अधिक प्रभावित होती हैं जिनके कारण पुतलियों का घूम जाना तथा अर्दित का हो जाना बहुधा मिलता है। ___ यच्मा के प्रति क्षमता की उत्पत्ति के समय भी अविरामज्वर प्रगट होता है। उस समय फुप्फुस स्वच्छ होते हैं शुल्बौषधियाँ और कुर्चकि प्रभावहीन हो जाती है नाडी की गति द्रुत होती है, प्रस्वेद, भार में कमी आती है, खाँसी बढ़ती चली जाती है। क्षरश्मिचित्रण से रोग का निदान होने में सहायता मिलती है।
श्वसनक ( pneumonias) अविरामज्वर के अन्य महत्त्वपूर्ण उदाहरण हैं । प्रारम्भिक श्वसनक से पीडित रोगी की पहचान करना कठिन नहीं है। उसका तापांश बढ़ता चला जाता है, नाडी की गति भी तेज रहती है तथा श्वास की गति भी इन्हीं के अनुपात से बढ़ती चली जाती है। प्लूरिसी के कारण पाश्वों में शूल का होना कफ में लाली का आना मिलता है । वातनाडीसंस्थान, उदर, कण्ठ और अस्थिकोटरों में कुछ भी नहीं मिलता और हम सरलता से इस फुप्फुस खण्डीय श्वसनक ( lobar pneumonia) को अङ्गुलिठेपण तथा श्रवणयन्त्र की सहायता से पहचान सकते हैं । पर यह श्वसनक किस जीवाणु के द्वारा बना है उसे पहचानने के लिए ठीव परीक्षा (थूकपरीक्षा) परमावश्यक है। क्योंकि फुफ्फुसगोलाणुओं के अतिरिक्त अन्य जीवा
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