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ज्वर
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नाशक ( necrotic) व्रणात्मक प्रक्रिया के कारण जो निर्मोक बनता है वह भंगुर आसित, हरित या पीत वर्ण का होता है । यह व्रण के आधार भाग पर पड़ा रहता है और बिना रक्तस्राव के ही उखाड़ा जा सकता है। इसमें तापांश नहीं बढ़ा करता न शूल होता है और न ग्रैविक ग्रन्थियाँ ही फूलती हैं। कभी-कभी इसी के साथ दाँतों की जड़ों में छोटे-छोटे व्रण बने हुए देखे गये हैं। इस रोग की पुष्टि के लिए व्रण से थोड़ा सा पदार्थ लेकर अण्वीक्ष के नीचे देखते हैं और विसेंट के चक्राणुओं की उपस्थिति मालूम करते हैं।
लोहितज्वर की उत्कोठोत्तरीय अवस्था में उत्कोठ समाप्त हो चुकता है पर तुण्डिकाओं पर उत्स्राव बना रहता है। लोहितज्वर स्वयं रक्तस्रावी मालागोलाणुवर्ग के जीवाणु से बनता है इस कारण मालागोलाणुजकण्ठकृच्छ्रता के बहुत से लक्षण इसमें पाये जाते हैं। इसमें गला लाल हो जाता है और अग्रग्रैविकलिकोण की लसग्रन्थियाँ फूल जाती हैं । जिह्वा का वर्ण तृण बदरीय ( strawberry ) हो जाती है । ___ कण्ठ या गले में व्रण कई कारणों से बना करते हैं जिनमें पूया ( sepsis ) एक है। पूयिक व्रणन सम्पूर्ण मुख में होता है यहाँ तक कि ओष्ट तक उससे नहीं बचते साथ ही नासास्त्राव और कर्णस्राव भी पाये जा सकते हैं। बाह्य ग्रैविक लसग्रन्थियाँ भी पूयस्रावी हो जाती हैं। तापांश बढ़ जाता है ज्वर के साथ ही शिवतिमूत्रता भी पाई जाती है। साथ साथ चर्मविकार जैसे पामा, इम्पैटीगो आदि भी रहता हुआ देखा जाता है। यक्ष्मा के जीवाणुओं द्वारा गले का वणन बहुत कम देखा जाता है वह भी द्वितीयक उपसर्ग के रूप में स्वरयन्त्रीय यक्ष्मा के बाद बनती है ।
इसमें एक जीर्णस्वरूप का व्रण बनता है जिसमें क्षोद्य ( friable ) निर्मोक तुण्डिका या तालु पर पाया जाता है । साथ में स्वर का बैठजाना भी पाया जाता है। ज्वर नहीं मिलता। रोगी पतला दुबला रक्तक्षयजनित मिलता है। क्षकिरणीयचित्र से यक्ष्मा फुप्फुसों में अवश्य मिलती है। व्रण से अल्पांश लेकर अण्वीक्ष से देखने पर यक्ष्मादण्डाणु की उपस्थिति से पुष्ट होगा कि व्रण यदमाजन्य ही है। फिरंग के द्वारा होने वाला व्रणन असम या विषम होता है। ऐसा लगता है जैसे घोंघा का मार्ग (snail track ) बन गया हो। यह बहुधा कठिनतालु को पकड़ता है जो आगे चलकर फूट भी जाता है । फिरंग के अन्य लक्षण भी साथ ही साथ पाये जाते हैं।
ग्रन्थीयज्वर में गले में उत्स्राव साधारणतया पर्याप्त रहता है। इसे मालागोलाणुज कण्ठकृच्छ्रता अथवा विंसेंट के गलामय से पृथक करना कठिन होते हुए भी सम्पूर्ण देह में लसग्रन्थियों की वृद्धि खासकर पश्चग्रैविक त्रिकोण की ग्रन्थियाँ बाह्यत्रिकोण की ग्रन्थियों की अपेक्षा अधिक बढ़ती हैं । रक्त के चित्र में लसकायाणूत्कर्ष ( lymphocytosis) पाया जाता है।
सितरक्तता तथा अकणकायाणूत्कर्ष इन दो रक्तावस्थाओं में गले में कभी कभी उत्स्त्राव होता हुआ देखा जा सकता है । दौर्बल्य, प्लीहोदर (splenomegaly)
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