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ज्वर
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हेतु (योग्य वातावरण ) अत्यन्त महत्व रखता है। अर्थात् या तो चोट लगनी चाहिए या कोई चिन्ता होनी चाहिए। चिन्ता या चोट से व्यतिरिक्त शरीर और रोगाणु की सन्निधि मात्रा रोगोत्पत्ति करने में बहुधा असमर्थ रहती है। केवल उपसर्ग वा जीवाणु द्वारा रोगोत्पत्ति के सिद्धान्तवादियों के कफन में मैक्स्वीनी के इस स्पष्ट वक्तव्य द्वारा एक कील और गढ़ गई। इस साहित्यिक वाक्यावलि का प्रयोग हमें करना पड़ा है, पर विदेशी विद्वान् सत्य के खोजी और द्वेष से बहुत दूर हैं अतः वे निस्सन्देह उन्हीं तथ्यों तक पहुंच लेंगे जहाँ सहस्रों वर्षों की खोज बीन के पश्चात प्राचीन आयुर्वेदमनीषी पहुंचे। इस तीसरे हेतु के कारण कई बार उन लोगों में भी रोग हो जाता है जो पूर्णतः स्वस्थ होते हैं। ये स्वस्थ न होकर इन्हें हम स्वस्थवाहक नाम दे सकते हैं अर्थात् उनमें रोगोत्पादक जीवाणु रहते हैं पर रोग उत्पन्न तब होता है जब चोट या चिन्ता उन्हें अकस्मात् सताने लगे। . कण्ठकृच्छ्रता-चिकित्साशास्त्र एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण शास्त्र है। किसी रोग के निर्णय पर पहुँचना इतना सरल कार्य नहीं जितना कि दो और दो मिलाकर चार कह देना। उदाहरण के लिए यदि किसी का गला खराब हो जावे तो हमारा यह कर्तव्य नहीं कि उसका मुख खोलवा कर तुरत देखा जावे। उसके रोग की कथा आद्योपान्त सुनना परमावश्यक है फिर देखना है कि उसकी ग्रीवा में कहीं सूजन तो नहीं । स्पर्श करके देखना पड़ेगा कि रोगी की ग्रीवा में स्थित गाँठे फूली हैं या स्थानिक शोथ हो गया है अथवा यदि ग्रीवा की लसग्रन्थियों में शोथ है तो फिर क्या वह बाह्यत्रिकोण में है या पश्चत्रिकोण में। इससे रोग के सम्बन्ध में पर्याप्त महत्त्व का ज्ञान मिल जाता है । फिर मालूम करना चाहिए कि____ उसका चेहरा फीका है या सुर्ख ? उसका व्यवहार कैसा है ? उसकी नाड़ी की गति क्या है ? ज्वर कितना है ? ___ यदि उसका चेहरा तमतमाया हुआ लाल है नाड़ी की गति द्रुत तथा पूर्ण है निगलने में दर्द है और बाह्य ग्रैविक ग्रन्थियाँ सूजी हुई हैं तो यह मालागोलाणुजन्य प्रसनीपाक का रोगी माना जावेगा। पर यदि रोगी पीला, मुाया, ओजहीन, ज्वररहित ग्रैविक प्रसृतपाक (diffuse cellulitis of the cervical glands) से ग्रसित है तो वह गलदण्डीय रोहिणी ( faucial diphtheria) का रोगी बनेगा । रोहिणी के रोगी को निगलने में कष्ट प्रायशः नहीं होता केवल उसके गले में कष्ट बनता और बढ़ता चलता है। रोहिणी की नाड़ी मन्द और सौम्य रहती है जो आगे विषम बन जाती है। यदि रोगी की ग्रीवा के बाह्य और पश्च दोनों त्रिकोणों में गांठे सूजी हों। साथ ही कक्षा तक की गाँठों पर वरम हो। उसकी वंक्षण ग्रन्थियों पर भी सूजन हो सकती है। ऐसा रोगी ग्रन्थिकज्वर (glandular fever ) से पीडित माना जावेगा।
जब रोगी का इतिहास ज्ञात हो जावे तब उसके कण्ठ का परीक्षण किया जाता है । एक चौड़े चम्मच की सहायता से तथा टौर्च के प्रकाश में गले का वलय, इपी
३६, ४० वि०
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