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विकृतिविज्ञान ग्लोटिस का शिखर और ग्रसनी का बहुत सा भाग देखा जा सकता है। रोगी की गलदण्डिकाओं पर कोई स्राव या कला हो तो फिर क्या वह रोहिणी है इसका भले प्रकार विचार कर लेना चाहिए। क्योंकि रोहिणी के अतिरिक्त
(१) मालागोलाणुजन्य गलपाक । (२) तुण्डिकीय विधि । (३) विंसेट का गलामय ( vincent's angina)। (४) उत्कोठोपरान्त लोहितज्वर ( post ruptive scarlet fever )। (५) पूयिक वणन ( septic ulceration )। (६) यक्ष्मिक व्रणन। (७) फिरङ्गिक वणन । (८) अकणकायोत्कर्ष ( agranulooy. tosis ) और (९) सितरक्तता ( lukaemia ) आदि भी होते हैं ।
रोहिणी में कला सदैव तुण्डिकाग्रन्थियों पर बनती है जो चमकीले भूरे रंग की होती है और ३६-४८ घंटे में मृदुतालु और काकलक (uvula) तक पहुँच जाती है। उसके कारण या तो शूल नहीं होता या यदि होता है तो बहुत थोड़ा। थोड़ा सा हलका ज्वर रहता है। साथ में प्रैविक कोशोतिपाक ( cervical cellulitis) पाया जाता है। टौंसिल पर बढ़ती हुई इस कला में एक प्रकार की सडाँध आती रहती है। यदि इस कला को छुड़ाने का यत्न किया जावे तो रक्त के बिन्दुक झलक आते हैं। ये रक्तबिन्दुक अन्य किसी भी रोग के स्राव या उत्स्नाव (exudate) में नहीं मिलते। रोगी पीला पड़ जाता है उसकी नाड़ी हलकी होती जाती है और वह काहिल बनता जाता है जो रोहिणी के विष का परिणाम है। रोग के आरम्भिक ४ दिनों में मूत्र के अन्दर शिवति नहीं पाई जाती। यह एक शिशु रोग है। ___मालागोलाणुज कण्ठकृच्छता में गले में सबसे अधिक कष्ट होता है। इसमें तुण्डिका ग्रन्थियों पर उत्स्राव होता है शूल बहुत होता है। उत्स्राव बहुधा रेखाओं में मिलता है पर कभी-कभी सिध्मों में भी मिलता है। यह बहुत मृदु और सरलता से हटने योग्य होता है इसको हटाने से रक्त बिन्दुक नहीं दिखलाई देते इस रोग में गले में बहुत अधिरक्तता पाई जाती है। इसमें ज्वर बहुत रहता है। अग्र ग्रैविक गाँठे सूज जाती हैं वे कठिन और स्पर्शाक्षम हो जाती हैं। मूत्र में शिवति पाई जाती है। कान में दर्द भी हो जाता है। यह रोग तुण्डिकाओं की अस्वस्थता का प्रमाण है और जल्दी जल्दी हो जाता है यह तरुण और वयस्कों का रोग है।
तुण्डिकीय विद्रधि तुण्डिका के चारों ओर या उसके अन्दर का रोग है। यह रोग जितना अधिक गले में शूल करता है उतना कोई गलरोग नहीं। निगलना बहुत कठिन हो जाता है। हनुस्तम्भ ( trismus ) भी इसमें मिलता है। बाह्य गलत्रिकोण में रुग्णतुण्डिकेरी का भाग फूला हुआ होता है और बहुत स्पर्शाक्षम होता है। यह अवस्था प्राथमिक रूप में न बनकर प्रायः मालागोलाणुज कण्ठकृच्छ्रता के उपरान्त बनती हुई पाई जाती है।
विसेण्ट के अञ्जाइना में तुण्डिका के पास या उसी पर एक निर्मोक व्रण (slo. (ughing ulcer) बनता है। इस रोग में पूर्व के दोनों रोगों के विपरीत ऊति की हानि होती है जब कि उन दोनों में ऊति की वृद्धि पाई जाती है। इसी ऊति
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