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विकृतिविज्ञान उपरोक्त तालिका को देखकर क्या अनुमान किया जा सकता है ? यही कि तीनों आचार्यों की वातोल्बण सन्निपात की व्याख्या में अन्तर है महान् अन्तर है। एक ही नाम होते हुए भी एक भी ऐसा लक्षण नहीं प्रगट होता जो तीनों में समान हो । चरक ने ९ लक्षण गिनाए हैं भालुकि ने २२ तथा भावमिश्र ने १०। चरक और भालुकि तृष्णा को स्वीकार करते हैं । भालुकि और भावमिश्र-पार्श्वशूल और मूर्छा को मानते हैं चरक और भावमिश्र प्रलाप और भ्रम को एक साथ कहते हैं।
इस भेद का कारण क्या है ? जिसने आयुर्वेद का तनिक भी गम्भीरता से अध्ययन किया है वह देखेगा कि किसी भी रोग का नामकरण करना पूर्णतः आयुर्वैदिक पद्धति नहीं। दोषों की अंशांश कल्पना ही आयुर्वेदिक विचारधारा की आधारशिला है । वात कहने से कितने बड़े क्षेत्र का ज्ञान होता है इसे हम पृथ्वी कहने मात्र से समझ सकते हैं। पृथ्वी या पार्थिवद्रव्य कहना सरल है पर इसमें कितनी व्यापकता है उसे सहज ही नहीं लिया जा सकता। इसी प्रकार वातोल्बण सन्निपात नाम देना सरल है पर वात के कौन लक्षण उपस्थित हैं कौन नहीं इसके अनुसार हीनकफ हीनपित्त वाताधिक-सन्निपात के संसार में अनेकों रूप मिल सकते हैं। न चरक न भालुकि और न भावमिश्र गलत हैं। तीनों ही वात को जानते हैं तीनों ही माने हुए आचार्य हैं पर तीनों ने अपने जीवन में जिन रूपों में वातोल्वण सन्निपात के दर्शन किए हैं उन्हें यथावत् लिख दिया है। केवल सन्धि-अस्थिशिरःशूल के साथ प्रलाप मिलता हुआ सन्निपाती देखा जा सकता है। केवल उदरशूल, बस्तिशूल, गुदशूल, मूर्छा और पार्श्व. शूल से कराहता हुआ त्रिदोषपीडित व्यक्ति देखा जा सकता है तथा श्वासकासपावशूल से पीडित प्रलाप करता हुआ भी रोगी सन्निपात से पीडित पाया जा सकता है। इन्हें क्या कहा जावेगा ? इन तीनों में ही वातोल्बणता पाई जाती है पित्त और श्लेष्मा की व्याप्ति नाममात्र की है अतः इन तीनों को ही हम वातोल्बणसन्निपात की संज्ञा दे सकते हैं।
पित्तोल्बणसन्निपात इसी दृष्टि से अब हम पित्तोल्बण सन्निपात की तालिका प्रस्तुत करते हैं :चरक भालुकि
भावमिश्र १ रक्तविट २ रक्तमूत्रता ३ दाह १ घोर बहिरन्तर्दाह
१ अतीव दाह ४ स्वेद
२ स्वेद ५ तृष्णा
३ तृष्णा ६ बलक्षय ७ मूर्छा
१ मूर्छा ४ घोर बहिर्वर
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