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विकृतिविज्ञान सन्निपातज्वर के सामान्य लक्षणों को चरक सुश्रुत वाग्भट बसवराज आदि सभी ने लिखा है । इनके द्वारा लिखे लक्षणों की जो तालिका ऊपर दी है उससे यह स्पष्ट हो जाता है कि सन्निपातज्वर के सम्बन्ध में विभिन्न आचार्यों की जो कल्पना है उसमें पर्याप्त साम्य है।
उदाहरण के लिए जिह्वा, कर्ण, और नेत्र के लक्षणों के द्वारा सन्निपातज्वर का ज्ञान बहुत कुछ हो जाता है। सन्निपात से पीडित रोगी की जिह्वा जली सी काले रंग की होगी और स्पर्श में काठिन्य या खरता स्पष्टतः झलकेगी। कानों में रोगी को सनसनाहट या भनभनाहट का शब्द सुनाई पड़ेगा तथा शूल या पीड़ा भी होगी। नेत्रों के देखने से त्रिदोष की स्थिति बहुत कुछ स्पष्ट हो जावेगी। अर्थात् रोगी के नेत्र फटे फटे और पुतलियाँ फैली फैली होंगी। उनमें अश्रु भी भरे हो सकते हैं तथा वे लाल सुर्ख और कलुषयुक्त देखे जा सकते हैं। आँखों के पक्ष्म वाग्भट के मत से बिखरे या फैले हुए मिलते हैं। ___अस्थिसन्धियों या जोड़ों में शूल का होना एक ऐसा लक्षण है, जिसे सिद्धविद्याभू के अतिरिक्त शेष सभी ने स्वीकार किया है। पर सन्निपात में सदैव जोड़ों में शूल हो यह आवश्यक नहीं। बहुत से रोगियों में यह पाया जाता है। किसी किसी के अस्थिपों में ही वह होता है।
सिर में वेदना का होना अथवा सिर का इधर उधर लुढकना ये दो महत्व के लक्षण हैं । सिर में बिना दर्द का कोई भी सन्निपाती कदापि नहीं दिखलाई देता। दर्द की तेजी के कारण और वात की वृद्धि से वह अपने सिर को भी अस्थिर रखता है।
सन्निपातावस्था में ज्वर सदैव तीव्र रहता है। उसकी उग्रता ही शिरःशूल का कारण होती है।
रोगी को क्षण में ही दाह और दूसरे क्षण में शीत का अनुभव होता है। कभी गर्मी से सब कपड़े फेंक देता है और कभी सर्दी से चार चार ओढ़ लेता है।
रोगी की चेतना शक्ति रहती है सुश्रुत ने चेतनाच्युति इतना निर्देश अवश्य किया है अन्यथा अन्य किसी भी आचार्य ने संज्ञानाश वा चेतना नाश की ओर इङ्गित नहीं किया है। परन्तु तन्द्रा एक ऐसा लक्षण है जिसे बसवराज द्वारा उद्धत तीनों महानुभावों के अतिरिक्त सभी ने स्वीकार किया है। इसी तन्द्रा के कारण रोगी को होश नहीं रहता फिर भी यदि वैद्य कुछ पूछता है तो वह उसका उत्तर दे देता है यहाँ तक कि थर्मामीटर मुँह में लगाने के लिए कहने पर मुँह खोल देता है। पर प्रलाप, भ्रम, मद और मोह इन चारों में से कुछ या सभी के लगातार बने रहने के कारण वह बहुत स्पष्ट नहीं हो पाता और उसके समझने में भी बहुत कमी आ सकती है। विकृतचेष्टा या चेष्टा की विकृति का होना भी महत्त्वपूर्ण है । वह कभी हँसता, गाता, रोता, गूथता या मूढवत् आचरण करता है। बसवराज द्वारा उद्धत 'सिद्धविद्याभू' आयुर्वेद और अन्य इन तीन उद्धरणों में मूर्छा की उपस्थिति भी दर्शाई गई है।
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