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विकृतिविज्ञान
कभी-कभी रोमहर्ष, श्यावदन्तता, कम्प, शोष, स्रोतोरोध, पिण्डिकाओं में शूल, शरीर में शूल, उन्माद, स्तब्धता, आध्मान, मूकता, श्यावरक्त कोठों या मण्डलों की उत्पत्ति, अरुचि आदि लक्षण भी पाये जा सकते हैं । इनमें से कई या कुछ या एकाध क्षण भी मिल सकता है । पर तीव्रज्वर, दाह, शैत्य, निद्रा, स्वेद, मल, मूत्र, इनकी अव्यवस्था, नेत्र की पुतलियों का फैल जाना, कानों में सन्नाहट, हृदिव्यथा, प्यास प्रलाप, तन्द्रा, पार्श्वशूलादि लक्षण अवश्य ही पाये जाते हैं ।
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आचार्यों ने सन्धिक तन्द्रिकादि जिन सन्निपातों का वर्णन किया है वह उपरोक्त लक्षणों में किसी एक लक्षणविशेष की विशेषता के कारण ही किया गया है । सन्धिक में अस्थिसन्धियों में विशेष शूल मिलता है कास, तन्द्रा, वेदना, बलक्षय, अंगशैथियदि लक्षण वही हैं जिन्हें सर्वसामान्य सन्निपातीय तालिका में हम सरलता से 'देख सकते हैं । तद्रिका में तन्द्रा विशेष होती है । प्रलापक सन्निपात में प्रलापाधिक्य पाया जाता है । कहने का तात्पर्य यह है कि सर्वसामान्य सन्निपात ज्वरीय लक्षणों में जो लक्षण अधिक उग्र और बहुत स्पष्ट हो तो उसी के नाम पर उस सन्निपात के नामकरण की एक प्रथा के अनुसार ही विविध सन्निपातों का नामकरण किया गया है । चरक, सुश्रुत, वाग्भटादि द्वारा रचित संहिता ग्रन्थों को देखने से हमें ज्ञात होता है कि उन्होंने सन्धिक तन्द्रिकादि ऐसे भेदों या नामों को प्रोत्साहन न देकर सन्निपात ज्वर को एक ही माना है और उसी एकता की दृष्टि से चिकित्सा लिखी है । आगे टीकाकारों के समय में या लघुत्रयी के काल में ये बाकी के भेद अधिक देखने में आये हैं । हमने इन भेदों का वर्णन पहले इसीलिए किया कि अब सामान्य विवेचन में उसकी महत्त्वहीनता को जिसे बृहत्रयी के रचयिताओं ने समझा था हमारे पाठक भी जान लें । सामान्य लक्षण ४७ या ४८ हैं । इनमें से जो लक्षण अधिक उग्र होगा उसी के अनुसार हम ४८ अलग अलग नामों से सन्निपात ज्वर का नामकरण किया जा सकता है ।
दोषों के चिरपाक के सम्बन्ध में लिखा है
दोषे विबद्धे नष्टऽग्नौ सर्वसम्पूर्णलक्षणः । सन्निपातज्वरोऽसाध्यः कृच्छ्रसाध्यस्ततोऽन्यथा ॥
सप्तमे दिवसे प्राप्ते दशमे द्वादशेऽपि वा । पुनर्घोरतरं भूत्वा शमनं याति हन्ति वा ॥
एतैश्च द्विगुणैर्वापि मोक्षाय च वधाय च ।
दोषों के बँध जाने से और अग्नि के नष्ट हो जाने के कारण असाध्य या कष्टसाध्य सन्निपात बनता है । यह ७-१० या १२ दिनों या उनके दूने तीन गुने या चौगुने समय में शान्त होता या मार डालता है । वास्तविकता है कि अधिक उग्र लक्षण होने पर जीवन अधिक दिन नहीं चलता और दोषों के पाक में जितना ही अधिक समय बीतता है रोगी उतना ही अधिक बलक्षीण हो जाता है ।
अष्टाङ्गहृदय और सन्निपातज्वर
अष्टाङ्गहृदयकार ने सन्निपातज्वर का सामान्य लक्षण लिख कर फिर सन्निपात के दो का और नामोल्लेख किया है:
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