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३७.
ज्वर (६) प्रलपनपरितापभ्रमान्तिमोहप्रकम्पा भ्रमणदहनमान्धं कण्ठमन्याग्रहश्च ।
श्वसनकसनशलं व्याकुलत्वं तृडतिर्भवति मृतिरहोरुग्दाहके सन्निपाते । ( वै. वि.) रुग्दाह सन्निपात का मुख्य लक्षण कण्ठ में शूल या कण्ठग्रह का होना है। हनु और मन्या के प्रदेश में शूल का होना भी इसका एक महत्व का लक्षण है। रोगी को दाह या ताप बहुत लगता है जिसके परिणामस्वरूप सिर चकराता रहता है तथा प्यास खूब लगती है । श्वास की गति बढ़ी हुई मिलती है और प्रलाप ( delirium) उसे बराबर रहता है। रोगी अर्द्धमूञ्छित वा मोह से व्याप्त पड़ा रहता है। उसके शरीर में कस कर दर्द होता रहता है। वह थका सा, अग्निमान्द्य से पीडित सा, जडता युक्त, भी देखा जा सकता है। हिचकी, खांसी, कम्प, व्याकुलता, माथे और कण्ठ पर स्वेदागमन, अरुचि आदि लक्षण भी किसी किसी में देखे जाते हैं। यह सन्निपात अत्यन्त कष्टसाध्य या असाध्यस्वरूप का होता है। इसमें रोगी को प्रत्येक क्षण दाह या ताप वह भी कण्ठ या हनु वा मन्याप्रदेश में बहुत मिलता है।
चित्तभ्रम सन्निपात (१) गायति नृत्यति हसति प्रलपति विकृतं निरीक्षते मुह्येत् । ___ दाहव्यथाभयार्तो नरस्तु चित्तभ्रमे ज्वरे भवति ।। ( भा. प्र.) (२) प्रलापो नर्तनं हास्यं नासापीडामदभ्रमाः । वैकल्यं कोपनं गानं दुस्साध्यश्चित्तविभ्रमः॥
(मा.) (३) मोहो मदो भ्रमस्तापो हास्यगीतप्रलापनम् । नृत्यं विकलता पीडा विकटाक्षो विचक्षणः ।।
___ लक्षणैः सन्निपातोऽयं ज्ञातव्यश्चित्तविभ्रमः । ( आ.) (४) यदि कथमपि पुंसां जायते कायपीडा भ्रममदपरितापा मोहवैकल्यभावौ।
विकटनयनहासो नृत्यगीतप्रलापो ह्यभिदशति न साध्य केहि चित्तभ्रमाख्यम् ॥ (नि. ना.) (५) सर्वावयववैकल्यं वातपित्तप्रकोपनम् भ्रममोहौ भ्रुकुटिलो गीतनृत्यप्रलापनम् ।
____ महाघोरः सन्निपातो ज्ञातव्यश्चित्तविभ्रमः ॥ (चि.) (६) भ्रममदपरितापा मोहवैकल्यभावा विकलनयनहास्यं गीतनृत्यप्रलापाः ।
श्वसितमधिकमेतलक्षणं यत्र सर्व भवति च तमसाध्यं केपि चित्तभ्रमाख्यम् ॥ (वै. वि.) चित्तविभ्रम सन्निपात कुछ के मत में साध्य और कुछ इसे असाध्य मानते हैं । अवश्य ही यह कष्टसाध्य व्याधि है। यह उन्माद से मिलती जुलती होने पर भी उससे पूर्णतः पृथक और स्पष्ट व्याधि है। इसमें मनोवेगों की प्रबलता के कारण कभी रोगी गाता है, कभी नाचता है, कभी हँसता है तथा कभी प्रलाप करने लगता है । उसके नेत्र कुटिल या विकृत देखते हैं। यह एक सान्निपातिक ज्वर है जब कि उन्माद एक अन्य व्याधियों की भाँति व्याधि है जिसमें ज्वर का होना आवश्यक नहीं । मोह, मद, भ्रम और विकलता ये चार लक्षण इस रोगी को बहुत कष्ट देते हैं। रोगी भयार्त भी हो सकता है । दाह, नासापीडा, श्वासाधिक्य आदि लक्षण भी मिल सकते हैं । इस सन्निपात में वात और पित्त इन दोषों की अधिक उल्बणता देखी जाती है।
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