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ज्वर
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(३) प्रभूतातन्द्रार्तिज्वरकापिपासाकुलतरो, भवेच्छथामा जिह्वा पृथुल कठिना कण्टकवृता।
__ अतीसारःश्वासःक्लमजयरितापःश्रुतिरुजो, भृशं कण्ठे जाड्यं शमनमनिशं तान्द्रिकगदे॥(आ.) ( ४ ) अतितन्द्रा ज्वरः श्वासः श्रमस्तापोऽतिसारतृट् । स्थूलकण्ठयुतिः श्यामा जिह्वाकठिनकण्टका।
श्रुतिः स्वल्पा काश्चेति तान्द्रिके सान्निपातिके ।। (नि.) (५) बद्धप्रलापस्तन्द्रा च जिल्हा श्यामा सकण्टका। कठिना निद्रवा शुष्कं सन्तापश्चातिसारकः॥
श्वासः कण्डूविवर्णश्च तोयं स्रवति लोचने । ज्वरमत्युत्कटं चैव तान्द्रिके सान्निपातिके ॥ (चि.) (६) प्रभूततन्द्रावर वेगतृष्णाः श्यामा खरस्पर्शवती च जिह्वा ।
श्वासातिसारौ बमथुः प्रदाहः कर्णे रुजस्तन्द्रिकसन्निपातः ॥ (वै. वि.) सन्निपात में अतिशय तन्द्रा होती है । तन्द्रा के लिए परिभाषा देते हुए लिखा हैइन्द्रियार्थेष्वसम्प्राप्तिर्गौरवं जृम्भणं क्लमः । निद्रार्तस्येव यस्येहा तस्य तन्द्रां विनिर्दिशेत् ।। अतः तन्द्रा कहने से गौरव, जृम्भण क्लम और निद्रा इन सभी का आभास हो जाता है। अतः जिन्होंने इन लक्षणों का उल्लेख किया है वह व्यर्थ का पिष्टपेषण है। तान्द्रिक सन्निपात में तन्द्रा, तृष्णा, श्वास, सन्ताप, ज्वर इन पाँच लक्षणों के अतिरिक्त जिह्वा, कर्ण और कण्ठ के जो लक्षण मिलते हैं वे इसे पहचानने में बहुत सहायक होते हैं। जीभ का रंग श्याम होता है स्पर्श में वह शूकयुक्त और खुरदरी हो जाती है उस पर कांटे जम जाते हैं । कानों से रोगी बहुत कम सुन पाता है किसी-किसी के मत से कानों में पीड़ा या प्रदाह भी होता है। गला या कण्ठ सूज जाता है। कभी-कभी तो गले में इतनी सूजन होती है कि उसके कारण उसमें स्थूलता आ जाती है। गले में कफ का बढ़ जाना भी एक लक्षण है जो मिल सकता है।
इनके अतिरिक्त कास, दाह, शूल, सोया सा रहना, वेगपूर्वक ज्वर का बढ़ना और ज्वर का निरन्तर बना रहना भी ऐसे लक्षण हैं जो समय-समय पर व्यक्ति-व्यक्ति में ऋतु वा देशकालीनभिन्नता के साथ बढ़ते घटते रहते हैं। अतीसार इस रोग का बहुत ही कष्टदायक उपद्रव है। ___ यह एक दुःसाध्य रोग है पर है यह साध्य और इससे पीडित व्यक्ति की ध्यानपूर्वक चिकित्सा करने से वह निस्सन्देह ठीक हो जाता है।
प्रलापकसन्निपात (१) यत्रज्वरे निखिलदोपनितान्तरोष-जाते प्रलापबहुला सहसोत्थिताश्च ।
कम्पव्यथापतनदाहविसंज्ञताः स्युर्नाम्ना प्रलापक इति प्रथितः पृथिव्याम् ॥ (भा. प्र.) १२) प्रलापकम्पएक्प्रज्ञानाशवैकल्यविभ्रमाः। प्रलापः प्राणहन्ता च विलापोग्रज्वरादिभिः॥ (मा.नि.) (३) कम्पप्रलापपरितापनकण्ठपीडाशोफप्रवातप्रतिकः पवमानचिन्ता।
प्रज्ञाप्रणाशविकलः प्रचुरप्रवादः क्षिद्रं प्रयाति पितृपालिपदं प्रलापी॥ (आ.) (४) प्रलापकम्पो भ्रान्तिश्च प्रज्ञानाशोऽतितापवान् । पादशोफागपीडा च यत्र स्यात्प्रतिवादिता ॥
ज्ञेयं प्रलापके चिह्न सन्निपातो निकृन्तकः ।। (नि. ना.) (५) कम्पप्रलापसन्तापा वातश्लेष्मप्रजायते । हिकातापज्वरश्चैव प्रलापे सान्निपातिके ॥ (चि.) (६) कम्पः प्रलापः परितप्तमंगं दाहो ज्वरस्याभ्यधिको हि वेगः ।
संज्ञाविनाशो विकलाङ्गता च प्रलापकोऽसाध्यतमो मतश्च ॥ (वै. नि.)
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