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विकृतिविज्ञान कि ये सभी लक्षण सर्वसाधारणतया शीताङ्ग सन्निपात में पाये जाते हैं। रोगी का शरीर ठण्डा बर्फ के मानिन्द होता है पर थर्मामीटर पर पारा १०४° तक बढ़ जाता है। रोगी की श्वास बढ़ जाती है उसे ठण्ड लगती और हार्थों में कंपकपी आती है । बार बार दस्त जाता है। इसने प्रलाप नामक लक्षण नहीं दिया जो शीतगात्रता के बाद दूसरा आवश्यक लक्षण है ।
नित्यनाथ ने क्षीणनाज्यङ्गताप ये बड़े प्रसिद्ध लक्षण कह दिये हैं। नाडी की गति शीताङ्गसन्निपात में क्षीण होती चली जाती है। प्रलाप और मोह इसने भी नहीं दिये पर श्वास, हिक्का, अतीसार, कम्प, शिथिलगात्रता हिमशीतशरीर के अतिरिक्त स्वीकार किये हैं।
चिन्तामणि ने तथा वैद्यविनोदकार ने मुख्य लक्षण शीतगात्रता मानी है उसके अतिरिक्त पहले ने कास श्वास, हिक्का, अंगशैथिल्य वमन, अतिसार, उग्रताप, मूर्छा तथा दूसरे ने कम्प, हिका, शिथिलाङ्गता, खिन्ननाद, कास, वमि और प्रसेक को स्वीकार किया है। ___ आचार्यों ने शीताङ्गसन्निपात का जो चित्रण किया है वह सुस्पष्ट है । शीताङ्गसन्निपात का कारण कोई भी हो यह असाध्य कहा गया है। इसकी कोई चिकित्सा नहीं और यह यदि सर्वलक्षणयुक्त है तो आधुनिक, आयुर्वेदीय, होम्योपैथी, नेचुरोपैथी तिब किसी भी इलाज से बचता नहीं। जिन वैद्यों को या डाक्टरों को भ्रम हो कि वे शीताङ्गसन्निपातग्रस्त को बचा लेते हैं उन्होंने शीताङ्ग का वास्तविक रोगी देखा ही नहीं ऐसा उन्हें स्वीकार करने में झिझकना नहीं चाहिए। इसमें उग्रताप ( high temperature ) अतिसार, वमन, हिक्का, श्वास ( asphyxia) और हिमाङ्गता के साथ साथ ऐसा क्लम और शैथिल्य चलता है कि रोगी की जीवनीशक्ति निरन्तर क्षीण होती चली जाती है। कुछ लोग इसका न्यूमोनियाँ समझ कर इलाज करते हैं करोड़ों यूनिट पैनिसिलीन, औरियोमाइसीन, टैरामाइसीन, बृहत्कस्तूरी भैरवादि देने पर भी सब व्यर्थ होता है।
इतनी शीतगात्रता का कारण रोगी के शरीर के अणु अणु में वात और श्लेष्मा का प्रकोप होना है जिसकी प्रतिक्रिया के लिये उग्रताप होता है पर आन्त्र क्रिया अतीसार के कारण और श्वास क्रिया श्वसन कास हिक्का के कारण तथा मन पर अपरिमित विषाद होने से रोगी की प्राणरक्षा नहीं की जा सकती ।
२. तन्द्रिक सन्निपात
(१) तन्द्रातीवततस्तृषाऽतिसरणं श्वासोऽधिकः कासरुक ।
सन्तप्तातितनुर्गल: श्वयथुना सार्द्धञ्च कण्डः कफः॥ सुश्यामा रसना क्लमः श्रवणयोर्मान्द्य दाहस्तथा ।
यत्र स्यात्स हि तन्द्रिको निगदितो दोषत्रयोत्थो ज्वरः ॥ ( भा. प्र.) (२) तन्द्राशुलज्वरश्लेष्मतृष्णाचच्छर्दिकण्ठरुक् ।
उत्कण्ठः स्यादनशनं तान्द्रिके श्वासकः कफः ।। ( मा. नि.)
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