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विकृतिविज्ञान सन्निपातभेददर्शकतालिका को देखने से हमें यह पता चलता है कि भालुकि तन्त्र तथा चरक के काश्मीर पाठ में सन्निपात के विभाजन की समानता पाई जाती है । पर इन दोनों ने जिन लक्षणों का एक ही सन्निपात के अन्तर्गत जो वर्णन किया है उसमें पर्याप्त भेद है। यादवजी द्वारा भालुकितन्त्र का जितना अंश उद्धृत किया गया है उसके अनुसार केवल ६ सन्निपातों का ही वर्णन हुआ है शेष हमने शालिग्रामवैश्यसम्पादित भावप्रकाश से पूरे किए हैं। भावप्रकाश और भालुकितन्त्र इन दोनों ने भी जो वर्णन दिये हैं उनमें कुछ साम्य और कुछ भेद पाया जाता है।
- कविराज गंगाधर ने चरकोक्त १२ सन्निपात भेदों को मानना अस्वीकार कर दिया है । उसका कहना है कि इन १२ सन्निपातों में जो लक्षण गिनाए गये हैं वे प्रकृतिसमसमवाय लक्षण हैं जिन्हें ग्रन्थकार ग्रन्थविस्तारभय से कदापि देते नहीं दूसरे जो वाक्यावलि प्रयुक्त की गई है वह भी उचित नहीं। जैसे पहले सन्निपातजउच्यते, कहकर फिर आगे सन्निपातज्वरस्यूद्धम् लिखना अतः सन्निपातज्वरोस्यूदर्ध्व से अतो वक्ष्यामि लक्षणं तक के काश्मीरी चरकसंहिता के पाठ को अनार्ष माना गया है । पर क्योंकि वह वर्णन हमारे समक्ष है तथा काश्मीर देश के चरकीय पाठ से उपलब्ध है अनार्ष मानने का कोई कारण नहीं मूल आत्रेय संहिता जिसमें वर्तमान चरक संहिता से कई गुने श्लोक रहे सम्भवतः उसी से यह प्राप्त अंश हो । जो वर्णन इन सूत्रों में आया है वह यथार्थ है।
वातोल्बण सन्निपात भालुकितन्त्र भावप्रकाश और काश्मीरीचरकोक्त सन्निपातों में नाम साम्य रहने पर भी बहुत कुछ अन्तर पाया जाता है -
१-बातोल्बण सन्निपात को विस्फारक नाम से भावप्रकाशकार ने तथा विस्फुरक. नाम से भालुकि ने लिखा है । भावप्रकाशकार लिखते हैं
श्वासः कासो भ्रमो मूर्छा प्रलापो मोह वेपथुः । पार्श्वस्थ वेदना जम्मा कषायत्वं मुखस्य च ।। वातोल्बणस्य लिङ्गानि सन्निपातस्य लक्षयेत् ।
एष विस्फारको नाम्ना सन्निपातः सुदारुणः । भालुकि ने इसके लक्षण निम्न सूत्रों में दिये हैं
वातोल्बणः सन्निपातों यस्य जन्तोः प्रकुप्यति । तस्य तृष्णा ज्वरग्लानि पर्वरुग्दृष्टिसंक्षयः॥ पिण्डिकोद्वेष्टनं दाह अरुसादो बलक्षयः । सरक्तं चास्य विण्मूत्रं शूलं निद्राविपर्ययः ।। निर्भिद्यते गुदं चास्य बस्तिश्च परिकृत्यते । आयम्यते भिद्यते च हिक्कते विलपत्यपि ।।
मूर्च्छते स्फायते रौति नाम्ना विस्फुरकः स्मृतः। चरक के काश्मीरीपाठ में इसका वर्णन निम्नलिखित शब्दों में हुआ हैसन्ध्यस्थिशिरसः शूलं प्रलापो गौरवं भ्रमः । वातोल्बणे स्याद् द्वयनुगे तृष्णाकण्ठास्यशोषता ।।
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