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ज्वर
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इस ज्वर में स्वेदोत्पादक ग्रन्थियों में भी कुछ क्रिया बढ़ जाती है अतः स्वेदागम होता रहता है। अधिक ऊष्मा और अन्तर्दाह के कारण तृष्णा का होना अस्वाभाविक नहीं है | श्वासोच्छ्वासकारिणी पेशियों के प्रभावित होने से श्वास का वेग भी बढ़ सकता है। रोगी की पेशियों में थकान ( fatigue ) पर्याप्त मात्रा में रहने से तन्द्रा का आना या पुलकन होना या अङ्गों में व्यथा का अनुभव होना साधारण सी घटनाएँ हैं । तीव्रज्वर, श्वास और प्रस्वेदाधिक्य का परिणाम मूर्च्छा तक जा सकता है । वसवराजीयकार ने मांसगतज्वर का जो रूप हमारे सामने रखा है वह बहुत भयानक और उग्रावस्था का चित्रण करता है । इसमें सृष्टमूत्रपुरीषता का लक्षण उसने नहीं लिखा । सम्भवतः दस्तादि होने के पूर्व उग्रता की अधिकता के कारण देखे गये मांसगत ज्वर का यह स्वरूप रहता हो इसको प्रत्यक्ष देखकर ही यहाँ प्रगट किया गया है ।
चरक और वृद्धवाग्भट दोनों ने मांसगत ज्वर में गात्र की दुर्गन्धता पर भी बल दिया है । स्वेदाधिक्य अथवा सृष्टमूत्रपुरीषता के कारण रोगी से दुर्गन्ध आना एक साधारण बात है । पर यह गात्रविक्षेप के कारण पेशियों में कुछ न कुछ क्रिया होने के कारण उत्पन्न दुर्गन्धता हम मानते हैं । जैसा कि अधिक व्यायामशील पहलवान के शरीर से जब कभी गात्र दौर्गन्ध्य देखा जाता है । गात्र की दुर्गन्धता का एक कारण यह भी है कि मांसगतज्वर से पीडित रोगी सदैव जीर्ण या अधिक काल से बीमार ही हुआ करता है । अतः उसमें दुर्गन्धता मिलना सदैव सम्भव है ।
अष्टांगसंग्रहकार ने भ्रम और तम ये दो लक्षण और भी बतलाये हैं । उसका कारण यह है कि मांसगत ज्वर बहुधा रक्तगत ज्वर के आगे की अवस्था है | अतः रक्त धातु के हास के साथ भ्रम या चक्करों का आना और तम अर्थात् दृष्टि के समक्ष अन्धकार हो जाना या दृष्टिमान्य हो जाना अस्वाभाविक नहीं है । ये दोनों भी लक्षण अन्य अनेक शारीरिक लक्षणों की तरह अस्थायी हैं और रोगनिर्मूलन के साथ-साथ इनका भी निर्मूलन सरलतया हो जाता है ।
सोऽन्येद्युः पिशिताश्रितः के अनुसार अन्येद्युष्क ज्वर नाम का विषमज्वर भी मांस में आश्रय करके रहता है । परन्तु अन्येद्युष्क ज्वर में और मांसगत ज्वर में बहुत अन्तर है | एक स्वयं मांस नामक धातु को लक्ष्य बनाकर चलता है और दूसरा केवल उसमें आश्रयी आश्रित के भाव से रहता है । अन्येद्युष्क को भेल रसव्यापत्तिज मानकर रसाश्रित बतलाता है | मांसगत ज्वर निरन्तर रहने वाला एक जीर्ण ज्वर है तथा अन्येद्युष्क ज्वर दिन रात में केवल एक ही बार आता है शेष समय रोगी पूर्ण सुखी रहता है । साधारण अन्येद्युष्क ज्वर में ऊष्मा, अन्तर्दाह, मूर्च्छा, श्वास, अतीसार भ्रम आदि के वे लक्षण भी नहीं मिलते जिनको मांसगत ज्वर के साथ प्राचीनों ने बाँध दिया है । अतः इन दोनों की पृथक्-पृथक् सत्ता के सम्बन्ध में संशय करने का कोई कारण नहीं है । दोनों की चिकित्सा में भी पर्याप्त भेद रहा करता है ।
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