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विकृतिविज्ञान
है पर अत्युष्ण नहीं । उसे १०० से लेकर १०२ तक भी तापांश मिल सकता है पर उससे ऊपर प्रायशः नहीं जाता । चरक ने इसे मृद्वग्निता कह कर पुकारा है। और उसकी टीका करते हुए जल्पकल्पतरुकार ने मृद्वग्निता वातादि ज्वरापेक्षया - धिकमन्दाग्निता सर्वज्वरेऽपि वह्निमान्यात् कह कर जाठराग्नि की मन्दता की ओर अङ्गुलि निर्देश कर कफज्वरी को अग्निमान्य की शिकायत रहती है यह व्यक्त करने का यत्न किया है । पर उग्रादित्य ने भी मन्दोष्णता शब्द का व्यवहार किया है तथा वसवराज ने मन्दवह्नि ऐसा लिखा है जिनसे अभिप्राय जाठराग्नि की मन्दता न निकल कर शरीरस्थ ताप की मृदुता या मन्दता जिसे सुश्रुत के मत से नात्युष्णगात्रता कहा गया है ही लेना चाहिए ।
करोत्यग्निस्तथा मन्दो विकारान् कफसम्भवान् ।
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माधव के इस वाक्य को देख कर मन्दाग्नि का होना सिद्ध तो किया जासकता है पर कफज्वर में यह सर्वसाधारणतया पाया जाने वाला लक्षण है । अग्नि जब तक आमाशय छोड़कर दोषों के द्वारा बाहर की ओर प्रवृत्त नहीं होती तब तक तो कोई ज्वर उत्पन्न होता ही नहीं है । अतः अग्निमांद्य तो सभी ज्वरों में अनिवार्यतः पाया जाने वाला लक्षण है । स्वयं पित्तज्वर भी इसका अपवाद नहीं वहाँ तो पैत्तिक उग्रता के कारण कुछ भी खाया कि छर्दि के द्वारा बाहर आया स्वयं तीक्ष्ण पित्त भी उसे पचाने में असमर्थ रहता है । अतः मन्दोष्णता या मृद्वग्निता को नात्युष्णगात्रता के पर्याय रूप में ही लेना चाहिए । कफ के स्वाभाविक गुणों में शीतता भी इसी के बाँट में पड़ी है । जब वह कुपित होता है तो शैत्य भी साथ ही साथ बढ़ता है । शैत्य के कारण शरीर पर ज्वर का उग्र रूप से आक्रमण नहीं हो पाता। रोगी को ज्वर तो आता है पर कफ के शीतल प्रभाव से उसमें मन्दोष्णता के लक्षण पाये जाते हैं । सुश्रुत ने श्लैष्मिक हृद्रोग में 'अग्निमार्दवम्' का व्यवहार किया है वहाँ भी अग्निमांद्य न लेकर तापांशाल्पता ही लेना चाहिए ।
ल्हण ने ज्वर के वेग के सम्बन्ध में जो किया है वह ज्वर के मन्द वेग की ओर लक्ष्य है बढ़ता है उसी प्रकार उसका वेग भी अधिक नहीं होता ।
स्तिमितो वेगः शब्द का प्रयोग क्योंकि कफज्वर में जैसे तापांश कम
अनन्नाभिलाषा या अरुचि कफ रोग की एक महत्त्वपूर्ण विशेषता मानी जाती है। ज्वर के पूर्वरूपों का वर्णन करते हुए विशेष लक्षणों में कफादन्नारुचिर्भवेत् पीछे कहा जा चुका है। रोगी को अन्न की अभिलाषा नहीं होती । उसे पेट भरा सा जान पड़ता है | डल्हण ने जो कफज्वर के रूपों का वर्णन किया है जिसे माधवकर स्वयं भी ग्रहण कर लिया है उसमें अरुचि के अतिरिक्त एक लक्षण तृप्ति दिया है | अन्नाभिपका कारण गौरव जो कफातिरेक के कारण हुआ है वह होने के कारण रोगी खाने की ओर से तृप्त दिखलाई देता है मानो उसे भोजन की इच्छा कभी होती ही नहीं। भोजन से द्वेष उसे नहीं होता न भोजन देखते ही कै आती है और न अन्न में कोई दुर्गुण उसे दिखलाई पड़ता है अपि तु वह स्वयं तृप्त रहता
हुआ
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