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ज्वर
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है । हमारे पास जो हारीत संहिता है उसमें यद्यपि यह वाक्य नहीं फिर भी प्रस्वेदो मल-मूत्ररोधसहितः में प्रस्वेद द्वारा कार्त्तिक विजयरक्षित अथवा गंगाधर का समर्थन हो जाता है । दूसरी ओर सुप्रसिद्ध चरकटीकाकार श्री चक्रपाणिदत्त आते हैं जिन्होंने स्वेदस्तम्भ इति स्वेदाप्रवर्तनम् ऐसा दिया है । प्रत्यक्ष में श्लैष्मिक स्तैमित्ययुक्त व्याधि होने से, इस रोग में पसीना बहुत आता है जो ज्वर के मध्यवेग का कारण होता है अतः हम भी वातश्लैष्मिक ज्वर में कार्त्तिक के ही मत के पक्षपाती हैं ।
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श्लेष्मपित्तज्वर
(१) मुहुर्दाहो मुहुः शीतं स्वेदः स्तम्भो मुहुर्मुहुः । मोहः कासोऽरुचिस्तृष्णा श्लेष्मपित्तप्रवर्तनम् ॥ ( चरक )
( २ ) लिप्ततिक्तास्यता तन्द्रा मोह: कासोऽरुचिस्तृषा । मुहुर्दाहो मुहः शीतं इलेष्मपित्तज्वराकृतिः ॥ ( सुश्रुत ) ( ३ ) शीतदाहारुचिस्तम्भस्वेदमोहमदभ्रमाः ।
कासाङ्गसादहल्लासा भवन्ति कफपैत्तिके ॥ ( सुश्रुत पाठान्तर ) (४) शीतस्तम्भ स्वेददाहाव्यवस्था तृष्णाकासः श्लेष्मपित्तप्रवृत्तिः ।
मोहस्तन्द्रा लिप्ततिक्तास्यता च ज्ञेयं रूपं श्लेष्मपित्तज्वरस्य । ( वाग्भट )
(५) निद्रागौरवकात्ससन्धिशिररुक्चार्तिस्तथा पर्वणां मैदो मध्यम वेगमत्र नयने वातान्विते श्लेष्मणि । सन्तापः श्वसनं रुचिः श्रुतिपथे कण्ठे च शुष्कावृतिस्तन्द्रा मोहमरोचकभ्रममथश्लेष्मज्वरे पित्तले ॥ ( हारीत )
(६) शीतं दाहो मुहुस्तन्द्रा मोहः कासोऽरुचिश्च तृट् ।
लिप्ततिक्तास्यता पित्तबलासज्वरलक्षणम् ॥ ( अञ्जननिदान ) (७) कासोऽरुचिर्मोहवमिप्रसेकाः संलिप्ततिक्तं वदनं विगन्धि ।
शीतदाहा लिंङ्ग ज्वरे तत्कफपित्तजे स्यात् ॥ ( वैद्यविनोद )
(८) कफपित्तविकारहेतुकरसविर सजाताजीर्णजन्यामयास्थिमज्जाधातुचराद्यदोषश्चोभयलक्षणयुक्तों रोगः कफपित्तविकारजातज्वरः । ( आयुर्वेदसूत्र )
आयुर्वेद सूत्र भाष्यकार श्री योगानन्दनाथ ने दोषत्रयोत्पादितज्वरास्त्रयः तत्तद्द्वन्द्वदोषजातज्वरास्त्रयः के सम्बन्ध में वक्तव्य देते हुए लिखा है कि केवल अजीर्ण द्वारा भी ज्वरोत्पत्ति हो सकती है तथा
सर्वेऽपि ज्वरा रसविरसजाताजीर्णजन्या एव ।
अर्थात् मूल रस के विरसता में परिणत होने पर सभी ज्वरों की उत्पत्ति होती है । रस की विरसता बिना अजीर्ण के सम्भव नहीं । अतः नाजीर्णेन विना ज्वरः ऐसा उसने निरशङ्क स्वीकार कर लिया है। अतः वात, पित्त, कफ, वातपित्त, वातकफ अथवा पित्तकफ एक या दो दोष जाकर आमाशय में पाचनक्रिया का विघटन कर देते हैं जिससे अन्न अजीर्णवस्था में पड़ा रहता है और विविध लक्षणों से युक्त ज्वरोत्पत्ति का कारण बनता है ।
वातपित्तज्वर अजीर्णजनित है और रस और रक्त इन दो धातुओं में व्याप्त होता
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