________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
४१४
विकृतिविज्ञान
है । वातश्लैष्मिक ज्वर भी अजीर्णजनित है पर यह मांस और मेदो धातुओं में व्याप्त होता है । तथा पित्तकफज्वर अजीर्णजनित होता है और यह अस्थिमज्जा धातुओं पर प्रभाव डालता है ।
जिन द्वन्द्वज ज्वरों में वात का सम्बन्ध आता है वे गम्भीर स्वरूप के होते हैं पर उनमें वात के शीघ्रगामी होने के कारण वे शीघ्र स्वास्थ्य लाभ कर लेते हैं पर कफ और पित्त दोनों ही भारी और मन्दचारी होने से समावस्था में आने के लिए पर्याप्त विलम्ब करते हैं ।
पित्तकफज्वर में सभी आचार्यों के द्वारा व्यक्त लक्षणों की संख्या २७ तक पहुँचती है। इनमें चरक, सुश्रुत, वाग्भट, अञ्जननिदानकार तथा वैद्यविनोदकार ने केवल लोक में प्रचलित सर्वसाधारण पित्तकफज्वर का वर्णन करके अपने कर्त्तव्य की इतिश्री कर दी है पर सुश्रुत पाठान्तर में तथा हारीतसंहिता में कफपित्तज ज्वर के विविध रोगियों में कहाँ तक लक्षण पाये जा सकते हैं इस दृष्टि से विचार किया गया है । हारीत इस दिशा में बहुत आगे गये हैं । उन्होंने सर्वसामान्य श्लेष्मपित्त ज्वर के लक्षणों की ओर उतना ध्यान न देकर अन्य ऐसे १० या ११ लक्षणों का समावेश किया है जिन्हें अन्य शास्त्रकारों ने नहीं लिखा । उदाहरण के लिए उन्होंने मुहुर्दाहः मुहुः शीतम् इसे हुआ भी नहीं जिसे प्रायः सभी ने व्यक्त किया है। उन्होंने अरुचि का उल्लेख न करके रुचिः श्रुतिपथे का विवेचन किया है। कण्ठे च शुष्कावृति का उल्लेख कर यह दिखलाने का यत्न किया है कि उन्होंने अपनी खोजों और सूझ के बल पर ही अपना वर्णन उपस्थित किया है । वैद्यविनोदकार द्वारा उपस्थित कफपित्तज्वर का चित्र भी कुछ पृथक् सा है । स्तम्भस्वेद को न सुश्रुत लिखता है, न हारीत, न अग्निवेश और न वैद्यविनोदकार ।
इस सम्पूर्ण प्रकरण में मोह ही एक ऐसा लक्षण है जिसे सब शास्त्रकार पाते हैं । कभी दाह का होना और कभी शीत का लगना इस लक्षण को हारीत के अतिरिक्त प्रायः सभी ने स्वीकार किया है । कास भी हारीत व्यक्तिरिक्त सभी को मान्य है । हारीत कास न मानकर श्वास को मान्यता प्रदान करता है । प्यास का लगना सुश्रुतपाठान्तर, हारीत संहिता और वैद्यविनोद को मान्य नहीं है । लिप्ततिक्तास्यता तथा तन्द्रा ये लक्षण चरक, सुश्रुत पाठान्तरकार और हारीत को स्वीकार नहीं । मद अंगसाद तथा हल्लास ऐसे लक्षण हैं जिन्हें अकेले सुश्रुत पाठान्तर में ही इस प्रकरण में देखा जा सकता है | भ्रम का समर्थन भी हारीत और सुश्रुतपाठान्तरकार करते हैं । मी वैद्यविनोदकार द्वारा ही व्यक्त की गई है । उसी ने प्रसेक, मुख की विगन्धि और मुहुर्षण को माना है । गौरव, सन्धिशूल, पर्वभेद, शिरःशूल, नेत्रों में वातश्लैष्मिक स्राव, मध्यम वेगी सन्ताप और निद्रा अकेले हारीत की खोज से प्राप्त फल है । अरुचि को वाग्भट के अतिरिक्त सभी ने स्वीकार किया है । तन्द्रा सुश्रुतपाठान्तर और वैद्यविनोद को छोड़ सर्वत्र विद्यमान है ।
For Private and Personal Use Only