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ज्वर
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धारण करती है। किसी में खुजली युक्त चकत्तों ( urticaria) का रूप धारण करती है और किसी में चर्मदल ( eczema ) ही बन कर रह जाती है । हम आयुर्वेदीय भाषा में इस स्थिति को कफरक्तावस्था (एलर्गी alergy) अर्थात् रक्त में कफाधिक्य मानते हैं । अतः कण्ड्रयुक्त चकत्ते जिनके साथ-साथ जाड़ा या कम्पन भी हो प्रायः देखे जा सकते हैं। पर प्रत्येक कफज्वर में वे नहीं मिलते। आधुनिक दृष्टि में कफज्वर एक बहुत व्यापक विषय है जिसके अन्तर्गत अनेकों लक्षणों का समावेश किया जा सकता है जिनमें कुछ एक दूसरे के आश्रित हैं और कुछ पूर्णतः स्वतन्त्र भी हैं। शीतपिटिका या उदर्दोत्पत्ति शैत्य के आश्रित व्याधि है। पर शैत्य एक स्वतन्त्र रोग है जो कफज्वर में विभिन्न रूपों में प्रगट होता है। सुश्रुत, डल्हण, हारीत, उग्रादित्य आदियों ने शीत पिटिकाओं का कोई वर्णन किया नहीं।
कफज्वर के सम्बन्ध में कुछ लक्षण ऐसे हैं जिन्हें एक आचार्य स्वीकार करते है पर अन्य उसके सम्बन्ध में मौन हैं । इसमें एक उष्णाभिप्रायता है। इसे चरक मानता है । पर इसके सम्बन्ध में स्वयं चरकमतानुयायी अष्टाङ्गसंग्रहकार मौन है। उसने कफा वृत वायु में__ शैत्यगौरवशूलानि कटवायुपशयोऽधिकम् । लङ्घनायासरूक्षोष्णकामता च कफावृते ॥ उष्णकामता को माना है पर कफज्वर में उसे नहीं लिखा । पर लिखे या नहीं, शैत्य से कष्ट पाया हुआ व्यक्ति उष्ण पदार्थों की सर्वदा चाह किया ही करता है उसमें अधिक शास्त्र चर्चा को स्थान भी नहीं हो सकता।
कफज्वर में रोमहर्ष या रोमोद्गम नामक लक्षण न चरक ने लिखा न वाग्भट ने पर क्या वह नहीं होता? कफज्वर के शीत से व्यथित रोगी के रोंगटे अवश्य खड़े होते हैं इस सर्व साधारण सत्य को कोई धोखे से ओझल करे या न करे पर वह है अवश्य।
कफज्वर में वेदना उतनी नहीं होती जितनी कि वातज्वर में पित्तज्वर से भी कम वेदना होने के कारण उग्रादित्य तथा सुश्रुत ने रुगल्पत्वम् ऐसा लक्षण दे दिया है । पर रुजा की अल्पता की ओर किसी ने विशेष ध्यान नहीं दिया। सुश्रुत और उग्रादित्य तथा वैद्यविनोदकार ने अत्यङ्गसादन या अङ्गसाद का उल्लेख अवश्य किया है। इसका अभिप्राय यह है कि कफज्वरी में सार्वदैहिक अवसाद पाया जाता है। इसे जानते हुए भी कई आचार्यों ने व्यक्त करना आवश्यक नहीं माना।
सुश्रुत और उग्रादित्य दोनों ने अविपाक की ओर भी दृष्टिक्षेप किया है कि श्लेष्मज्वर में जाठराग्नि के बहुत नष्ट हो जाने के कारण आहार का विपाक ठीक-ठीक नहीं हो पाता। ___ वाग्भट और उग्रादित्य दोनों स्रोतोरोध या स्रोतावरोधन के प्रति एक मत हो गये हैं। कफ की प्रचुरता के कारण स्रोतसों के मुख बन्द हो जाते हैं और उनमें रोध हो जाता है यह एक अनिवार्य घटना है। हारीत ने श्रुतिरोधनम् के द्वारा कानों के बन्द होने या रुंध जाने की ओर भी दृष्टिपात किया है।
उग्रादित्य ने अक्षिपात, विहीनता, कफोद्गम तथा कण्ठगत कराडू की ओर
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