________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
४१०
विकृतिविज्ञान
लक्षण माना जावेगा। विजयरक्षित ने इस कथन को पुष्ट किया है। गंगाधरने भी
वातपित्तयोविकृतिविषमसंयोगाल्लोमहर्षार्दानि लिङ्गानि भवन्ति न त्वन्यस्मिन् वातपित्तजव्यायौ।
दाह या अन्तर्दाह-यह पैत्तिक लक्षण वातपैत्तिक ज्वर में बहुत महत्त्वपूर्ण रहता है। वात की रूक्षता कोशाओं को सुखाती है और पित्त की उष्णता उन्हें जलाती है जिससे रोगी को बहुत अधिक ऊष्मा प्राप्त होती है।
पर्वभेद और परिक्षय-अँगुलियों के पोरुओं में दर्द का होना या उनका क्षीण हो जाना। यह लक्षण वातोदर, क्षतज कास और वातपित्तज्वर के अतिरिक्त अन्यत्र नहीं मिला करता। भेदनक्रिया वायु के द्वारा होती है बड़े जोड़ों में यह इसलिए नहीं हो पाती कि पित्त का साथ साथ होने वाला प्रकोप उसे पनपने नहीं देता पर पोषण अत्यधिक दूरस्थ भाग में होने के कारण यहाँ पित्त की अपेक्षा वात की शुष्कता और रूक्षता का प्रभाव विशेष पड़ता है।
शिरःशूल-वातिक लक्षणों के अन्तर्गत हमने उसे माना है क्योंकि शूल अर्थात् पीड़ा का कारण वातिक प्रकोप हुआ करता है पर पैत्तिक कारण भी शूलोत्पत्ति में सहायता देता है। जब वातपैत्तिक ज्वर में वात के कारण शिरःशूल होता है तो रात्रि में वह बढ़ता है पर जब पैत्तिक धर्म के कारण होता है तब रात्रि में कम हो जाता है।
निद्रानाश-स्वयं एक वातिक लक्षण है। वातिक प्रकोप की कमी के कारण निद्राल्पता और अधिकता होने पर निद्रा का सर्वथा नाश हो जाता है। __ रक्तनेत्रता के द्वारा सरलतया यह जान लिया जाता है कि रोगी के मस्तिष्क में खून बढ़ रहा है जिससे मस्तिष्क के वातनाड़ी केन्द्रों पर भार बहुत पड़ने से उनमें वात का प्रकोप हो जाता है तथा नेत्रों में अरुणता की वृद्धि तथा अतिवाचालता बढ़ जाती है।
वमथ-यद्यपि वमन वातिक और पैत्तिक दोनों प्रकार की होती है परन्तु वातपैत्तिकज्वर में वह पैत्तिक ही पाई जाती है। वातपैत्तिक वमन जैसी कोई व्याधि पाई नहीं जाती।
तृष्णा-प्यास वमन का सहवर्ती लक्षण है और पित्तदोष प्रधान है।
मूर्छा-वातपित्तज्वर में बहुत अधिक महत्त्व नहीं रखती फिर भी रोगी की मुद्रा तन्द्रायुक्त होती है वह बेसुध रहता है पित्त के कारण उत्पन्न हुए तीव्र ज्वर का वह प्रमाण है।
भ्रम और मद-ये दोनों पैत्तिक हैं भ्रम का कारण निद्रानाश तथा मद का कारण मूर्छा की अवस्था का होना है।
जम्भा-वायु की प्रधानता को ही प्रकट करता है।
अतिवाक् या प्रलाप-शुद्ध वातव्याधि में प्रलाप जितना प्रबल होता है वह रूप तो यहाँ देखने को नहीं मिलता फिर भी होश रहते हुए अधिक बोलने की वृत्ति इस रोग में बढ़ जाती है।
For Private and Personal Use Only