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विकृतिविज्ञान एक से उत्पन्न विकार दूसरे से शान्त होना चाहिए पर व्यवहार में वैसा नहीं दिखाई देता। वात जिन स्थानों में दूषित होता है उन-उन स्थानों में विकारोत्पत्ति करता हुआ रक्त को दूषित कर देता है । वही पित्त करता है। जब शरीर के दो दोष अपनी समता खो बैठते हैं तो फिर शान्ति कैसी ? विकार एक विचित्र प्रकार का रूप लेकर उपस्थित होता है उसमें न शीतोपचार किया जासकता है और न उष्णोपचार । फिर भी प्राचीन आचार्यों ने अपनी सूझबूझ के बल पर इस गुत्थी को बहुत सावधानी के साथ सुलझा लिया है।
ऊपर जो आठ शास्त्रीय उद्धरण हमने दिये हैं इनमें आयुर्वेद सूत्रकार ने केवल वातपित्तज्वर की सम्प्राप्ति मात्र लिख दी है कि वात और पित्तकारक रस जब अजीर्ण के कारण विरसता को प्राप्त हो जाते हैं तो वे आमाशय में आमरस की उत्पत्ति करते हैं और रक्त के द्वारा धातुओं में पहुँच कर उभय लक्षणजन्य वातपित्तज्वर बनता है। शेष, आचार्यों ने वातपित्तज्वर में २५ लक्षण गिनाए हैं। ये लक्षण वात पैत्तिक दृष्टि से बाँटने पर निम्न श्रेणियों में आते हैं
वातिक लक्षण पैत्तिक लक्षण अन्य वा मिश्र . १ रोमहर्ष
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to x
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४ शिरोरुजा
कण्ठास्यशोष ___x
XX
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वमथु
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तृष्णा मूर्छा
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अरति
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निद्रानाश
x x x
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अतिवाक
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x अरुचि
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तम
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उस्कम्प
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मोह
रकनेत्रता
२०
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कटकास्यता
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रूक्षता
२२ २३
श्वसन अङ्गभङ्ग
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