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विकृतिविज्ञान रोग में भी नेत्रों का वर्ण श्वेत मिलता है-कफज पाण्डु में कफाच्छुक्लसिरादिता पर इन्दु लिखता है आदि ग्रहणेन नखविण्मूत्रनेत्राणाम् । __मुख की सुर्थी घट जाती है और वह श्वेत वर्ण का हो जाता है। त्वचा की सुर्थी भी घट जाती है और वह भी सफेदी लिए हुए दिखलाई देता है। इसका क्या कारण है ? कारण स्पष्ट है कि परिसरीय विभाग में ( त्वचा में ) रक्त की केशालों में से रक्त भीतर की ओर चला जाता है और श्लेष्मल कला की ग्रन्थियों में प्रचुरता के साथ नावोत्पत्ति में लग जाता है। रक्त की केशालों में रक्त की कमी होने से त्वचा पर सफेदी आ जाती है तथा बाह्य भागों में रक्त की कमी होने का प्रत्यक्ष परिणाम शैत्य में होता है और शैत्य कफज्वर का एक प्रधान लक्षण कहा ही जाता है। अतः जहाँ त्वचा श्वैत्य वहीं त्वचा शैत्य भी इस कारण बाहर से कफज्वर बहुत ही मन्द स्वरूप का प्रकट होता है । यही नहीं त्वचा पर हाथ रखने से कभी तो यह धोखा भी हो जाता है कि व्यक्ति को ज्वर है भी या नहीं। कफज्वर में शैत्य और श्वैत्य की यह महिमा है। मूत्र में श्वैत्य के निकलने से बल में कमी होकर श्लथगात्रता भी उसी का एक परिणाम है। ___ अब हम अङ्गेषु शीतपिटिकाः की ओर दृष्टिपात करते हैं। इस पर गङ्गाधर का शीतमारुतादि सम्भवकोठवच्छोफा उदर्द इत्याख्याः भृशमत्यर्थमुत्तिष्ठन्त्यङ्गेभ्य इति भाष्य है कि शीतवायु द्वारा उत्पन्न कोठ के समान शोफ उत्पन्न हो जाते हैं जिनको उदर्द कहा जाता है ये अनेकों उदर्द चमडी में उठते हैं उदर्द का लक्षण देते हुए अरुणदत्त लिखते हैं___ शीतपानीयसंस्पर्शाच्छीतकाले विशेषतः । श्वयथुः शिशिरार्तानामुदर्दः कफसम्भवः । जाड़ों में शीतल जल के विशेष कर स्पर्श करने के कारण शीत से पीडित को जो कफजनित शोथ उत्पन्न हो जाता है वह उदर्द कहलाता है।
माधवकर ने उदर्द का वर्णन करते हुए लिखा है किसोत्सझैश्च सरागैश्च कण्डूमद्भिश्व मण्डलैः । शैशिरः कफजो व्याविरुदर्द इति कीर्तितः ॥ उठे हुए, लालवर्ण के, खुजली से युक्त जो जाड़े की ऋतु में चकत्ते उठते हैं वे उदर्द कहलाते हैं।
वाग्भट ने शीतपिटिका और उदर्द ये दो पृथक्-पृथक् माने हैं। शीत के कारण उत्पन्न पिटिकाओं और उदर्द में कोई विशेष अन्तर चरक ने नहीं माना है।
हेमाद्रि ने उदर्द को 'उरोभिस्पन्दनम्' कहा है । चन्द्र और तोडर ने उसे शीतवेपथु माना है। इन सबका अर्थ है कि उदर्द एक प्रकार की जाड़े से काँपने की अवस्था का नाम है। ___ कफज्वर के कारण शीत पिटिकाओं का उद्गम होना पूर्णतः स्वाभाविक घटना है । पर यह घटना प्रत्येक रोगी में सर्वदा घटे यह आवश्यक नहीं । आधुनिक दृष्टि से विचार करने पर शरीर के रक्त में जब उषसिप्रिय श्वेतकणों की वृद्धि होती है तब उसके कई प्रकार के रूप प्रकट होते हैं किसी में वह श्वास का रूप (tropicaleosinophilia)
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