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विकृतिविज्ञान क्यम् , सुश्रुत ने अतिनिद्रता, डल्हण द्वारा उद्धत कफज्वर के लक्षणों में अतिनिद्रता उग्रादित्य ने निद्रालुता और वैद्यविनोदकार ने निद्राति शब्दों का व्यवहार करके निद्रा की उपस्थिति को असन्दिग्ध रूप में स्वीकार किया है।।
वाग्भट ने यहाँ निद्राधिक्य का कोई विवरण नहीं दिया पर श्लेष्मल वृद्धि के प्रकरण में कफ के बढ़ने पर होने वाले लक्षणसमूह का नामोल्लेख करते हुए उसने अतिनिद्रता को नहीं छोड़ा_श्लेष्माऽग्निसदनप्रसेकालस्यगौरवम् । श्वैत्यशैत्यश्लथाङ्गत्वं श्वासकासातिनिद्रताः।
जब अङ्गों का शैथिल्य, गौरव और आलस्य ये तीन लक्षण उसे स्वीकार हैं तो इनके कारण उत्पन्न हुई निद्रा को वह अस्वीकार नहीं कर सकता। सम्पूर्ण अष्टाङ्गहृदय को पढ़ने पर कफज्वरी निद्रालु नहीं होता ऐसा भाव न वाग्भट को ही प्रतीत होता है न पाठक को प्रकट होता है न वैसा उसे भ्रम ही हो सकता है।
दूसरी शंका यह होती है कि अष्टांगसंग्रहकार ने निम्न स्थानों पर निद्रा का होना माना है
१. कफज हृद्रोग, २. कफज तृष्णा, ३. कफज मदात्यय, ४. कफज गुल्म, ५. कफोदर, ६. कफज अतीसार, ७. कफज शोफ, ८. अग्निविसर्प, ९. कर्दमविसर्प, १०. ध्वंसकमदात्यय, ११. विषज मद ।
जब वह उक्त ग्यारह स्थलों पर निद्रा का स्पष्ट उल्लेख करने में पूर्ण समर्थ है तो फिर उसने कफज्वर में निद्रा का बखान क्यों नहीं किया ? इससे कोई यह समझे कि वह निद्रा का उल्लेख करना भूल गया यह नितान्त असम्भव है। . तब फिर हमें अङ्गेषु शीतपिटिकास्तन्द्रोदर्दः कफोद्भवे को ध्यानपूर्वक देख कर अपना मतलब निकालना होगा। तन्द्रा यह लक्षण वाग्भटों को मान्य है । अरुणदत्त ने अपनी सर्वाङ्गसुन्दरी व्याख्या में निद्रार्तस्येव विषयाग्रहणं तन्द्रा ऐसा अर्थ लगाया है कि निद्रा से पीडित व्यक्ति का इन्द्रियों के विषयों में असमर्थ होने की अवस्था तन्द्रा कहलाती है। जब व्यक्ति पूर्णतः सो जाता है तब उसे इन्द्रिय विषय ग्रहण करना असम्भव ही होता है। पर जब वह निद्रालु होता है तब वह विषयों के ग्रहण करने में थोड़ा सतर्क और थोड़ा असतर्क या आलसी बन जाता है। कहानी कहते समय जब कोई हाँ हाँ कहते समय सोने लगता है और बीच-बीच में कभीकभी फिर हाँ हाँ कर देता है तो यह समय तन्द्रा का माना जाता है। अस्तु वाग्भटों को निद्रा मान्य न होकर तन्द्रा मान्य है । तन्द्रा का वर्णन सुश्रुत ने निम्न दिया हैइन्द्रियार्थेष्वसम्प्राप्तिर्गौरवं जम्भणः क्लमः। निद्रार्तस्येव यस्येहा तस्य तन्द्रां विनिर्दिशेत् ॥
डा. घाणेकर ने निद्रा और तन्द्रा का भेद यह बतलाया है कि निद्रा से प्रबोधित होने के पश्चात् मनुष्य उत्साहयुक्त होता है और तन्द्रा से प्रबोधित होने पर वह उत्साहरहित होता है। यह अवश्य युक्त है। निद्रालु व्यक्ति तन्द्रा की अवस्था में है। यदि उसे जगा दिया जावे और काम लिया जावे तो वह कार्य को उतने उत्साह से
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