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विकृतिविज्ञान शरीर में सहसा प्रभाव पड़ता है उसी प्रकार रसरक्तगामी प्रकुपित द्रव पित्त की व्याप्ति सम्पूर्ण शरीर में सिर से पैर तक एक साथ होती है। जब वह बढ़ता है तो वह वृद्धि भी एक साथ एक ही काल में हुआ करती है।
उष्मणस्तीव्रभावः ऊष्मा से अर्थ बाह्य ऊष्मा या सन्ताप से है जिसे हम लोकभाषा में ज्वर से पुकारते हैं। इस ज्वर का भाव पित्तप्रकोपक हेतु से उत्पन्न होने पर बहुत तीव्र होता है । पित्तज्वर के वेगस्तीक्ष्णः का अर्थ अपनी सर्वाङ्गसुन्दरी भाषाटीका में देते हुए लालचन्द्रवैद्य ने ज्वर के वेग को ५०४ डिगरी फरेनहाइट के ऊपर तापांश माना है । चरक, सुश्रुत, हारीत, उग्रादित्याचार्य तथा वैद्यविनोदकार वेग की तीक्ष्णता, महोष्मता, अंगों की अत्यधिक उष्णता को जहाँ स्वीकार करते हैं वहीं वृद्धवाग्भट या वाग्भट, वसवराजीयकार और अञ्जननिदानकार उसका उल्लेख भी नहीं करते। वसवराजीयकार ने सर्वाङ्गदाहः करपाददाहः ये दो लिखने के बाद एक बार पुनः दाहः शब्द का उल्लेख किया है। इन तीनों में एक दाह को हम ज्वर की तीव्रता और ऊष्माभिवृद्धि के लिए ले सकते हैं । अञ्जननिदान स्वयं एक बहुत लघुकायपुस्तिका है । अतः अन्य अनेक लक्षणों के छूट जाने के कारण वेग की तीक्ष्णता का उल्लेख रह गया हो तो कोई महत्त्व की बात भी नहीं है। दाह के डल्लेख को यहाँ वेग की तीक्ष्णता के लिए प्रयुक्त नहीं किया जा सकता फिर भी दाह से अन्तर्वाह्य ऊष्मानुभव की प्रतीति तो स्वीकार की ही गई है। यहाँ तो हमें बाहट ( वाग्भट ) की वर्णनशैली पर अत्यन्त आश्चर्य यह होता है कि उसने पैत्तिकज्वर में स्पष्टतः प्रगट होने वाली ज्वर के वेग की तीव्रता की ओर कोई भी सङ्केत नहीं किया है। यही नहीं दाह तक का उल्लेख नहीं किया। परंतु सर्वाङ्गसुन्दरी टीकाकार अरुणदत्त ने अपनी टीका में एक उत्तम प्रकार से इस कमी को पूरा करते हुए जो विचार सरणि प्रस्तुत की है वह निस्सन्देह उसकी योग्यता की दिग्दर्शिका है। उसी के शब्दों में
ननु, दोषास्त्रयोऽपि ज्वरं निवर्तयन्तीत्युक्तम् । पित्तज्वरे च पित्तेन युक्तस्य कायाग्नभूयो वृद्धया भाव्यम् , नाग्निमान्येन वृद्धिः समानैः सर्वेषाम् ( अष्टांगहृदय, सू. अ. १।१४ ) इति वचनात् । एवं चाग्निमान्द्याभावात् ज्वरस्य सम्भवेऽप्युपपत्तिरयुक्ता । नैवम् । स्वस्थानाञ्चालनेनाग्नेर्मान्द्यापत्तेः। स्थानवशाद्वाऽन्यथा त्वस्यापि क्रियासामर्थ्य दृष्टम् । तथा चाष्टाङ्गसंग्रहे चरके शोपनिदाने वक्ष्यति (च. नि. अ. ६।५)-'योऽश ( तस्य ) शरीरसन्धीनाविशति तेन ( अस्य ) जम्मा ज्वरस्योपजायते।' इत्यादि।तस्मात्स एवाग्निः क्वचिदेव देशे पक्तुं शक्तो भवति, न सर्वत्र । उष्णगुणेन तु पित्तेन युक्तः पक्ता भवत्येवोष्णतरः । अत एव सन्तापार्दानधिकतरान् करोतीति नं किञ्चिदत्रानुपपन्नम् ।
कहने का अभिप्राय यही है कि पैत्तिक ज्वर में ज्वर का तापांश (temperature) सदैव ऊँचा रहता है। वह जब चढ़ता है तो तीक्ष्णता या तीव्रता के साथ ही चढ़ता है।
चरक ने इस रोग में अतिमात्रदाहः शब्दावलि का प्रयोग किया है। सुश्रुत ने भी दाह को स्वीकार किया है। हारीत, उग्रादित्य, वसवराज, अग्निवेश और वैद्य विनोदकार इन पांचों ने दाह को मान्यता दी है। वाग्भटों ने दाह को इस स्थान पर कोई मान्यता देना आवश्यक नहीं माना है। विदाहः नाम से चरक ने इसका उल्लेख
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