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विकृतिविज्ञान हरितत्वम् को पलाशपुष्पवर्णत्वम् तथा हारिद्रत्वम् को हरिद्रावर्णत्वम् गंगाधर कविराज ने स्वीकार किया है। हारीत ने पैत्तिक प्रकृति का जो वर्णन किया है उसमें गौरातिपिङ्ग शब्द का प्रयोग किया है
गौरातिपिङ्गः सुकुमारमूर्तिः प्रीतः सुशीते मधुपिङ्गनेत्रः।
तीक्ष्णोऽपि कोऽपि क्षणभङ्गुरश्च त्रासी मृदुर्गावमलोमकं स्यात् ॥ पिङ्ग का अर्थ पीला होता है अतः गौरी जैसे पीले वर्ण का शरीर होकर और हलके पीले (मधुपिङ्गः) वर्ण के नेत्रों का पाया जाना स्वाभाविक माना गया है। उसी दृष्टि से पैत्तिक ज्वर में पित्त के प्रकोप से अस्वाभाविक वातावरण में शरीर का टेसू के फूल के समान हरियाली लिए पीला रंग हो जाना या हल्दी जैसा पीला वर्ण हो जाना सदैव सम्भव होता है।
शरीर की कान्ति का पीला हो जाना या शरीर पर पीले वर्ण की छाया का पड़ जाना उग्रादित्याचार्य भी स्वीकार करता है। उसने पित्तरोगाधिकार में पित्तप्रकोप के लक्षणों में स्पष्टतः पीताभ को स्वीकार किया है
आरक्तलोचनमुखः कटुवाक्प्रचण्डः । शीतप्रियो मधुरमृष्टरसान्नसेवी ।।
पीतावभासुरवपुः पुरुषोऽतिरोषी। पित्ताधिको भवति वित्तपतेः समानः॥ सुश्रत ने भी पीतविषमूत्रनेत्रत्वम् को स्वीकार किया है। वह मानता है कि मल, मूत्र और नेत्रों में पीलापन आ जाता है। वृद्धवाग्भट का भी पीतहरितत्वं त्वगादिषु को स्वीकार करना स्पष्ट झलकता है। स्वगादिषु में त्वगास्यक्षिनखमूत्रपुरीषेषु लिया जाता है। उग्रादित्य का पीतमलमूत्रविलोचनानि, मल, मूत्र और नेत्रों की पीतता की ओर स्पष्टतः सङ्केत कर देता है। वैद्यविनोद का पीता च भी का स्वीकार करना तथा अञ्जननिदानकार का पीतता को स्वीकार कर लेना हमें बतलाता है कि पित्तज्वरी का शरीर पीला पड़ जाता है या उसमें हरियाली (हरितत्व) आ जाती है । पाचक पित्त स्वयं हरा होता है तथा उसमें पीलापन भी होता है इसका प्रमाण पित्तजछर्दि का वर्णन करते हुए स्वयं सुश्रुत ने ही उपस्थित कर दिया है
योऽम्लं भृशोष्णं कटुतिक्तवक्त्रः पीतं सरक्तं हरितं वभेदा ।
सदाहचोषज्वरवक्त्रशोषं सा पित्तकोपप्रभवा हि छर्दिः ।। पीतता वा हरितता पीले और हरे वर्गों में से पहले हरितवर्ण का विकास होता है जो नाखूनों, नेत्रों, मुखमण्डल, मूत्र, पुरीष और त्वचा पर प्रकट होता है। कालान्तर में रोग की उग्रता होने पर हरी आंखें पीली पड़ जाती है नख, मल, मूत्र और त्वचा तथा चेहरा ये सभी पीले वर्ण के हो जाते हैं। कभी-कभी जब आरम्भ से ही रोग उग्र हो तो पीतता रोग के साथ-साथ ही प्रकट हो जाती है।
पित्त के कारण पीतता की प्राप्ति अन्य भी कई रोगों में देखी जाती है। पैत्तिक अतिसार में, "पित्तात्पीतं नीलमालोहितं वा पैत्तिक ग्रहणी में
___ सोऽजीर्ण नीलपीताभं पीताभं सार्यते द्रवम् । पित्तपाण्डुरोगी भी
पीतमूत्रकृन्नेत्रो दाहतृष्णाज्वरान्वितः । भिन्नविटकोऽतिपीताभः पित्तपाण्ड्वामयी नरः॥
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