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विकृतिविज्ञान
अत्यधिक गले का सूखना शीतल पदार्थों की चाह और मुख का तिक्त होना ये सभी लक्षण पीछे पित्तज्वर के सम्बन्ध में कह दिये गये हैं ।
घ्राणमुख कण्ठौष्ठतालुपाकः कहने से पित्त के उष्ण और तीक्ष्ण स्वभाव के कारण हुए अनर्थ की पुष्टि की गई है । ऊष्मा की अधिकता के कारण नाक पक जाती है, मुख में पाक हो जाता है जिन्हें हम लोकभाषा में मुंह में छाले पड़ जाना कहा करते हैं । गले में भी पाक हो जाता है जिसे फेरिञ्जाइटिस या गले की खराशमात्र कह दिया ता है । तालु में भी उसके निरन्तर सूखने और प्यास लगने से शोथ या पाक हो जाया करता है ।
सुश्रुत ने कठौष्ठमुखनासानां पाकः ऐसा लिखा है । जिसमें तालु पाक को छोड़ कर शेष चरकोक्त नासा, मुख, कण्ठ और ओष्ठों में पाक हो जाता है । वाग्भट ने नासास्यपाकः ही स्वीकार किया है जिसे नासायामास्ये च पाकः कहकर अरुणदत्त ने छोड़ दिया है। हेमाद्रि ने आस्यपाक को मुखरोगेषु कह दिया है । मुखपाक एक प्रकार का मुख रोग तो है ही इसे कौन अस्वीकार कर सकता है । मुखपाक नामक लक्षण को सुश्रुत, चरक, वाग्भट के अतिरिक्त हारीत, उग्रादित्य और वसवराजीयकार ने भी स्वीकार कर लिया है । पित्तज ४० विकारों में अङ्गपाकता जो लक्षण आया है वह पित्त की तीक्ष्णता के कारण होने वाले विविध शरीराङ्गपाकों के लिए ही प्रयुक्त हुआ है जिनमें ओष्टपाक, मुखपाक, तालुपाक, कण्ठपाक तथा नासापाक भी आ जाते हैं ।
पकने का प्रधान कारण पित्त की तीच्णता तथा उष्णता के साथ इन स्थानों की स्निग्धता में कमी आना और रूक्षता का बढ़ना भी है । व्रणशोथजन्य पाक के समान ही यह पाक हुआ करता है परंतु होता उससे कुछ सौम्य है । जब वह तीव्र हो जाता है तो चिकित्सक उसे व्रणशोथोद्भव मानते हुए ज्वर को दोषज न मानकर पाकजन्य मान लेते हैं जो यथार्थ नहीं । यहाँ दोषप्रकोप प्रथम है तत्पश्चात् कण्ठौष्ठमुखनासाताल्वादि में पाकोत्पत्ति होती है । वहाँ प्रथम पाक बनकर तब ज्वर आता है । यहाँ पाकोत्पादक दोष होते हैं पर वहाँ पाकोत्पत्ति में रोगकारक अनेक कारण जिनमें जीवसृष्टि महत्त्वपूर्ण भाग लेती है ।
यह न भूलना चाहिए कि व्रणशोथजन्य जितने भी पार्कों का पीछे वर्णन कर दिया गया है वहाँ जो शूल, ऊष्मा, लालिमा और सूजन ये जो चार लक्षण बतलाये थे उनमें ऊष्मा और लाली पित्त के कारण हुआ करती है । अतः जो ज्वर व्रणशोथादि में प्रकट होता है वह बराबर पित्तज ज्वर या पित्तज्वर मिश्रित अन्य उवर हुआ करता है पित्तानुबन्ध व्यतिरिक्त व्रणशोथ वा शरीरावयवगतपाक होना सम्भव नहीं ।
कण्ठौष्ठमुखनास तालु नामक प्रदेशों में ही पित्तज्वर जन्य पार्क' हो इतना सङ्कुचित भाव भी लेकर चलने की आवश्यकता नहीं है । ये पाक उपरोक्त स्थलों को छोड़ कर या उन्हें साथ लेकर शरीर के किसी भी अङ्ग में हो सकते हैं ।
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