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ज्वर
यही नहीं पैत्तिक स्वरभेद जैसे सरल रोग में भी
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पित्तेन पीतनयनाननमूत्रवर्चा ब्रूयाद्वलेन स च दाहसमन्वितेन ।
पीत के साथ हरितवर्ण का वर्णन भी पैत्तिक रोगों में मिला करता है जैसे पित्तज मूर्च्छा में
रक्तं हरितवर्ण वा वियत्पीतमथापि वा । पश्यंस्तमः प्रविशति सस्वेदश्च प्रबुध्यते ॥ सपिपासः ससन्तापो रक्तपीताकुलेक्षणः । जातमात्रे पतति च शीघ्रं च प्रतिबुध्यते ॥ संभिन्नवर्चाः पीताभो मूर्च्छाये पित्तसम्भवे ॥ चरकोक्त पित्तजछर्दि के उदाहरण में भी ऐसा ही मिलता हैपीतं भृशोष्णं हरितं सतिक्तं धूम्रं च पित्तेन वमेत्सदाहम् ।
पित्त के ४० रोगों में से कई रोग तो शरीरावयवीय पित्तरोग पीतवर्णता के कारण बनते हैं:दौर्गन्ध्यं पीतमूत्रत्वमरतिः पीतविकता । पीतावलोकनं पीतनेत्रता पीतदन्तता ॥ शीतेच्छा पीतनखता तेजोद्वेषोऽल्पनिद्रता ।
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अतः शरीर की पीतिमा या हरिताभा इन दोनों में से किसी एक को पाना पित्त की प्रकुपितता का स्पष्ट प्रमाण मान लेना चाहिए। किसी-किसी को इन दो वर्णों से पूर्व अत्यधिक रक्तवर्णता की व्याप्ति भी देखी जाती है । वह भी पित्त के कारण प्रकुपित रुधिर का प्रमाण है ।
तृष्णा के बाद दाह और उसके पश्चात् पाक आया करता है । हमने तृष्णा के सम्बन्ध में विचार किया है कि यह लक्षण शरीर में जब अत्यधिक उत्ताप या संताप बढ़ता है अर्थात् तापाधिक्य या उच्चशारीरिक ताप का सर्वप्रथम प्रमाण तृष्णा, तृषा, तृट्, तृड्, अतितृष्णा वा तृष्णाधिकम् के नाम से शास्त्रकारों ने कहा है । तृष्णा यानी प्यास का अधिक लगना अर्थात् रोगी द्वारा पानी-पानी चिल्लाना तथा जितना ही उसे पिला दिया जावे उतना ही उसे पानी की चाह का और बढ़ना तृष्णा कहलाती है । तृष्णा या पिपासा की उत्पत्ति के अनेक कारण होने पर भी पित्तवर्द्धक वातावरण या पित्तकारक द्रव्यों का प्रयोग अत्यधिक महत्व के कारणों में गिना जाता है
भयश्रमाभ्यां बलसंक्षायाद्वा ह्यूर्ध्वं चितं पित्तविवर्धनैश्च ।
पित्तं स वातं कुपितं नराणां तालुप्रपन्नं जनयेत् पिपासाम् ॥
इस पर टीका करते हुए मधुकोषकार लिखते हैं
पित्तविवर्धनैरिति कट्म्लोष्णादिभिः क्रोधोपवासादिभिश्च स्वस्थान एव सञ्चितं कुपितच पित्तं, वातश्च भयश्रमबलक्षयैः कुपितः ऊर्ध्वं प्रसरत् पिपासां जनयति ।
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जब कट्वलक्षारोष्णादि द्रव्यों का सेवन पित्ताभिवृद्धि करता हुआ पित्तज ज्वरोत्पत्ति कर सकता है तो उसके साथ-साथ तृष्णा का भी उदय हो जावे तो कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए । यह तृष्णा भी पित्तजा तृष्णा होती है जिसके सुश्रुतोक्त लक्षण निम्नलिखित हैंमूर्च्छान्निविद्वेषविलापदाहा रक्तेक्षणत्वं प्रततश्च शोषः ।
शीताभिनन्दा मुखतिक्तता च पित्तात्मिकायां परिदूयनं च ॥
पित्तज्वर के सम्बन्ध में शास्त्रकारों ने जो अनेक लक्षण गाये हैं उनमें से प्रायः सभी पित्तज तृष्णा के लक्षणों में भी समाविष्ट हैं । मूर्च्छा अन्नद्वेष विलाप दाह रक्तनेत्रता