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विकृतिविज्ञान ७. सन्निपातज ज्वर ८. अन्तर्वेगज्वर ९. मेदोगतज्वर
इनके अतिरिक्त छिन्नश्वास, यमलाहिका, तृष्णा और मदात्यय में भी इसका उल्लेख आचुका है।
पित्तज्वर में मद भी बढ़ सकता है। रोगी एक नशे से में पड़ा हुआ देखा जा सकता है । मधुकोशकार श्री विजयरक्षित ने सुपारी, कोदो या धतूरा खाने से जिस-जिस प्रकार का नशा चढ़ता है वैसा नशा पित्तज्वरी को हो सकता है ऐसा मद का अर्थ दिया है । गङ्गाधर कविराज ने भी उसी का प्रतिपादन कर दिया है और मदो मत्तत्व. मिव यथा पूगकोद्रवधत्तूरभक्षणादौ कह कर मधुकोशकार ने स्वीकार कर लिया है। ___ आयुर्वेद ने मद की व्याप्ति पित्तज ज्वर, रक्तगतज्वर, पैत्तिक कास, पैत्तिक यक्ष्मा, अतिमद्यपान, पैत्तिक शोथ और पैत्तिक वातरक्त में स्वीकार की है। दिमाग की गर्मी चढ़ जाने के कारण जो सन्ताप की अधिकता के कारण सदैव सम्भव है यह अवस्था उत्पन्न हुआ करती है। वसवराजीय, अञ्जननिदान और वैद्यविनोद को छोड़ अन्य सभी ने मदोपस्थिति स्वीकार की है।।
भ्रम का वर्णन अञ्जननिदान को छोड़ सर्वत्र आया है। भ्रम या मतिभ्रम सदैव एक पैत्तिक लक्षण या रोग माना गया है। भ्रम निम्न रोगों में मिल सकता है(१) वातज्वर (२) पित्तज्वर (३) सन्निपातज्वर (४) अभिचारज्वर (५) अन्तर्वेगज्वर (६) पच्यमानज्वर (७) वातपित्तज्वर (८) वातकफज्वर (९) वातजमूर्छा (१०) पित्तज. शोथ (११) हलीमक (१२) पाण्डुरोग (१३) छिद्रोदर (१४) परिस्राव्युदर (१५) सन्निपातोदर (१६) मदात्यय (१७) रक्तगतज्वर (१८) मांसगतज्वर (१९) अग्निविसर्प (२०) ग्रन्थिविसर्प (२१) रक्तगतवातव्याधि (२२) कृमिविकार (२३) वातिकविद्रधि (२४) तृष्णा (२५) पित्तजहृद्रोग (२६) पित्तावृतप्राणवायु (२७) पित्तावृत उदानवायु (२८) बहिर्वेगज्वर (२९) पित्तजकास तथा वातजतृष्णा और पैत्तिक मदात्यय में विशेष करके।
भ्रम के सम्बन्ध में बहुत विचारपूर्वक गङ्गाधर कविराज ने अपना मन्तव्य प्रकट किया है जो पाठकों के लिए बहुत लाभ की वस्तु है
भ्रमश्चक्रस्थितस्येव, भ्रमणशोथवस्तुदर्शनमिव स्वदेहभ्रमणज्ञानञ्च । यद्यपि महारोगाध्याये वातजाशीतिविकारेषु भ्रमोऽभिहितस्तथापि रजःपित्तानिलाद् भ्रमः इति वचनात् वातजत्ववत् पित्तजत्वमपि भ्रमस्थ ख्यापनार्थमिदं वचनं वातज्वरेऽपि भ्रमस्योक्तत्वात् । अन्ये तु न रोगोऽप्येकदोषज इति वचनात् पैत्तिके ज्वरे आरम्भकत्वम् , न हि स्वनिदानकुपितस्तत्र वायुः किन्तु एकः प्रकुपितो दोषः सर्वानेव प्रकोपयेदिति वचनात् प्रेरकत्वशक्तिमात्रेणैव वायोः कोपो न तु रूक्षत्वादिधर्मेण । तथात्वे हि वातपित्तजत्वव्यपदेशापत्तिरन्यतरलक्षणापत्तिश्च । परे तु दोषदूष्यसंयोगप्रभावात् कारणदृष्टस्यापि कार्य्यत्वेन सम्भवो यथा हरिद्रावर्णसंयोगाद्रक्तत्वमरुणत्वञ्च नीरूपत्वेऽपि वातातिसारे पुरीषस्य इत्याहुस्तदपि न मनोरमं तथाविधरूपान्तरापत्तेः । केचित्तु पित्तदूषितनेत्रत्वेन शङ्खः पोत इति ज्ञानवद् भ्रमज्ञानमाहुः।
आतङ्कदर्पणकार ने भ्रमहेतुमाह-रज इत्यादि ।
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