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विकृतिविज्ञान चकत्ते के रूप में मण्डलाकार शोफ की आकृति बन जाती है। कोठ का जो रूप यहाँ वर्णन किया गया है वैसा पित्तज्वर में नहीं मिलता वरटी के दष्ट का चकत्ता जितना बड़ा होता है वैसा चकत्ता यहाँ नहीं होता। यहाँ तो बहुत सूक्ष्म कभी दिखने वाले कभी न दिखने वाले ज्वर की तीव्रता के कारण दाने उठा करते हैं। सुश्रुत, हारीत, उग्रादित्यादि अनेक आचार्य चरकोक्त रक्तकोठों की उपस्थिति वरटीदष्टवत् न पा सकने के कारण अपने अपने ग्रन्थों में इस लक्षण का वर्णन नहीं कर सके। उत्तर भारत में मोतीझला के जिन दानों का वर्णन आता है जो चमकदार और अरुणवर्ण के होते हैं जिनकी उत्पत्ति का कारण तीव्रज्वर या अतिशय पित्तकोप है तथा जो क्षणिकोत्पत्तिविनाशी होते हैं रक्तकोठ के नाम से ले सकते हैं। मोतीझरा स्वयं भी एक पैत्तिक व्याधि है और उसके जीवाणुओं की सच्ची निवासभूमि पित्ताशय
और पाचक पित्त ही उनका पोषक माना जाता है । उसकी सम्पूर्ण चिकित्सा स्वर्णमुक्ता हरिताश्म बहुल पित्तशामक होती है अतः रक्तकोठोद्गम को मोतीझरा के दाने मान लेने में कोई विशेष अड़चन होती नहीं। निदानदीपिकाकार द्वारा ग्रीवायां परि. दृश्यन्ते स्फोटकाः सर्षपोपमाः जो लिखा है उस सर्षपोपम स्फोटक को रक्तकोठाभिनिवृत्ति मान लेना चाहिए। टायफाइड में रक्तवर्णानि मण्डलानि को उपस्थिति आधुनिक विद्वानों ने स्वीकार की है। इन्हें वे 'रोजस्पोट्स' ( rose spots ) कहते हैं। ___ उपरोक्त मुख्य मुख्य लक्षण जो पित्तज्वर में पाये जाते हैं उनके अतिरिक्त चरक की दृष्टि में अवसाद का होना; सुश्रुत की दृष्टि में निद्रा की कमी, वाग्भट की दृष्टि में अरति का होना जिसकी पुष्टि वसवराज ने अरति तथा शिरोऽर्ति के रूप में की है; हारीत की दृष्टि में विह्वलता का होना; उग्रादित्य की दृष्टि में अतिरोष का होना; और वसवराज की दृष्टि में मुखशोषण, कृशता, जडता, मन की चञ्चलता, मर्मजाल का विश्लेष या कण्डू, दुःस्वप्नता का होना और बतलाया गया है।
पित्तज्वर का रोगी ऊष्मा से अत्यधिक व्यथित रहता है इस कारण उसे शीतेच्छा, शीताभिप्रायता या अतिशिशिरप्रियता रहती है। वह कपड़े फेंक देता है खुले बदन रहना चाहता है और ठण्डी बर्फ की इच्छा प्रकट करता है।
कुछ आचार्यों ने पित्तज्वरी के मुख से या श्वास में एक प्रकार की दुर्गन्ध भी आती हुई बताई है। जिसे उन्होंने निःश्वास वैगन्ध्यः, श्वासो भवति कटुकम् , या निःश्वासपूति आदि शब्दों से व्यक्त किया है । वाग्भट, हारीत और उग्रादित्य तीनों ने श्वास की दुर्गन्धता की ओर इङ्गित किया है।
कफज्वर (१) तस्येमानि लिङ्गानि भवन्ति-तद्यथा युगपदेव केवले शरीरे ज्वरस्याभ्यागमनमभिवृद्धिर्वा । भुक्तमात्रे पूर्वाले पूर्वरात्रे वसन्तकाले वा विशेषेण । गुरुगात्रत्वं अनन्नाभिलाषः श्लेष्मप्रसेको मुखमाधुयं हृल्लासो हृदयोपलेपःस्तिमितत्वं छर्दिमृद्वग्निता निद्राधिक्यं स्तम्भस्तन्द्रा कासःश्वासः प्रतिश्यायः शैत्यं श्वैत्यश्च नखनयनवदनमूत्रपुरीषत्वचामत्यर्थञ्च शीतपिडका भृशमङ्गेभ्य उत्तिष्ठन्ति, उष्णाभिप्रायता निदानोक्तानुपशयो विपरीतोपशयश्चेति श्लेष्मज्वरलिङ्गानि भवन्ति । (चरक )
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