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ज्वर
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४० प्रकार के पित्तरोगों में किया है । इस कारण इसका उल्लेख करना एक प्रकार से आवश्यक हो जाता है । विना दाह के कोई पैत्तिक ज्वर हो ही नहीं सकता। वसवराज ने तो सर्वाङ्गदाह, करपाददाह तथा दाह इन तीन शब्दों में ज्वर के स्वरूप का वर्णन किया है।
पित्तज्वर की उत्पत्ति के सम्बन्ध में प्राचीनों ने चार प्रमुख कालों की घोषणा की है१. भुक्तस्य विदाहकाले।
२. मध्यन्दिने। ३. अर्द्धरात्रे।
४. शरदि वा विशेषेण । इसके अनुसार भोजन जिस काल में आमाशय या आन्त्र में पच रहा हो तब पित्तज्वर आरम्भ होता है । खाना खा लेने के दो घण्टे से ६ घण्टे पर्यन्त जो ज्वर उत्पन्न होता है वह बहुधा पित्तज्वर ही हुआ करता है । अन्न की जीर्यमाणावस्था अथवा पच्यमानावस्था में उत्पन्न होने वाला ज्वर सदैव पित्तज्वर कह कर पुकारा जाता है ।
दिन का मध्यम भाग भी पित्तज्वरोत्पत्ति के लिए अच्छा वातावरण उत्पन्न कर देता है । दिन अर्थात् सूर्योदय से सूर्यास्त तक के काल को ३ भागों में बाँट कर उनमें प्रथम और अन्तिम काल को छोड़ दें और जो मध्य का काल आता है जो दस बजे सवेरे से दो बजे अपराह्न तक यह काल पड़ता है। उसमें भी दोपहर के ठीक १२ बजे इसकी उत्पत्ति का प्रधान समय माना जाता है।
रात्रि का मध्य भाग जिसे मध्यरात्रि कहते हैं इस ज्वर की उत्पत्ति वा अभिवृद्धि अथवा वेगवृद्धि की दृष्टि से अच्छा वातावरण उपस्थित कर देता है। यह काल भी १० बजे रात्रि से २ बजे रात्रि तक आता है रात्रि के बारह बजे इसकी उत्पत्ति का महत्त्व का काल हुआ करता है।
पित्त के प्रकोप के काल का विचार दिन और रात्रि की दृष्टि से कर चुकने के पश्चात् जब वर्ष की दृष्टि से करना पड़ता है तो हम पित्त के संचय प्रकोप और प्रशमन काल की ओर घूम जाते हैं । पित्त का संचय वर्षाकाल में होता है:
तत्र वर्षास्वोषधयस्तरुण्योऽल्पवीर्या आपश्चाप्रसन्नाः क्षितिमलप्रायाः, ता उपयुज्यमाना नभसि मेघावतते जलप्रक्लिन्नायां भूमौ क्विन्नदेहानां प्राणिनां शीतवातविष्टाम्भिताग्नीनां विदह्यन्ते विदाहात् पित्तसंचयापादयन्ति।
वही सञ्चित पित्त शरत्काल में प्रकुपित होता है:स सञ्चयः शरदि प्रविरलमेघे वियत्युपशुष्यति पङ्केऽर्ककिरणप्रविलापितः पैत्तिकान् व्याधीन् जनयति । इन्हीं पैत्तिक व्याधियों के अन्तर्गत पित्तज्वर की भी समाविष्टि हो जाती है।
पित्त के प्रकोप के कारण ज्वरोत्पत्ति के साथ-साथ जो अत्यन्त महत्त्वपूर्ण और निर्णायक लक्षण देखा जाता है वह है :
हरितहारिद्रत्वं नखनयनवदनमूत्रपुरीषत्वचाम् । १. तदुष्णैरुष्णकाले च मेघान्ते च विशेषतः। मध्याह्ने चाधरात्रे च जीर्यत्यन्ने च कुप्यति ॥-सुश्रुतः ।
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