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ज्वर
अपने द्रवत्व के कारण बुझा देना भी सरल है। जब अग्नि आमाशय से बुझ गई तो फिर वह सम्पूर्ण शरीर में होकर प्रगट होती है वह आयुर्वेद की कल्पना है। तथा पित्त शरीर भर में संचार करने लगता है। उसकी संचरणता का मार्ग रसवहस्रोतसों के द्वारा है तथा वह स्वेदवाहीस्रोतसों के भी मार्ग में चला जाता है। पित्त का आश्रय स्वेद और रक्त माना गया है पित्तं तु स्वेदरक्तयोः। तथा पित्त के जो गुण कहे गये हैं उनमें स्निग्धता, उष्णता, तीक्ष्णता, द्रवत्व, अम्लता, सरत्व और कटुत्व मुख्य हैं। पित्त के जो साम्य लक्षण गिनाए हैं उनका भी स्मरण कर लेना हानिप्रद नहीं है
........"पित्तं पक्त्यूष्मदर्शनैः। क्षुत्तचिप्रभामेधाधीशौर्यतनुमार्दवैः। ___ जब इस समता में विकार का आकर पैत्तिक प्रकोप होता है तो
पीतबिण्मूत्रनेत्रत्वक्षुत्तृड्दाहाल्पनिद्रता । ये पित्तवृद्धि के सर्वसामान्य लक्षण प्रगट हो जाते हैं ।
अब हम 'युगपदेव केवले शरीरे ज्वराभ्यागमनमभिवृद्धि' की ओर अपना ध्यान ले जाते हैं । इस पर गंगाधर ने अपनी व्याख्या देते हुए लिखा है
युगपदेवेत्यादिना पित्तज्वरलिङ्गानि । केवले कृत्स्ने शरीरे युगपदेव ज्वराभ्यागमनमुत्पत्तिरभिवृद्धिः प्रकोप इति द्वयम् । वा शब्देनाभिवृद्धिश्च ज्वरस्य ।
पैत्तिकज्वर सम्पूर्ण शरीर में एक साथ ही उत्पन्न होता है तथा जब उसे बढ़ना होता है तो एक साथ ही बढ़ता है। कहने का अभिप्राय यह है कि अन्य ज्वर तो धीरे-धीरे बढ़ा करते हैं परन्तु पित्तज्वर एकदम बहुत ऊँचा जाता है। रोगी को एकदम सहसा तीव्रज्वर का हो जाना पित्तज्वर का महत्त्वपूर्ण लक्षण है। युगपत् अर्थात् एकसाथ यह नहीं कि पहले सिर में फिर पैरों में जैसा कि बात ज्वर में देखा जाता है अपि तु सम्पूर्ण शरीर में एकसाथ एक ही जोश के साथ यह ज्वर शरीर भर में फैलता है। इसमें हाथ पहले ठंडे रहें या पैर ठंडे रहें । ऐसी स्थिति नहीं देखी जाती। इसमें तो सारा शरीर पूरा का पूरा ही गर्म होता है। अतः जिन ज्वरों में पहले हाथ या पैर ठण्डे रहते हैं या शरीर के अन्य भागों में ताप कुछ अधिक लगे और कुछ में कम तो वे सब युगपदेव केवले शरीरे ज्वरस्याभ्यागमन की श्रेणी में नहीं आते अतः उनमें से किसी को भी पित्तज्वर नहीं कहा जा सकता है।
वाग्भटों ने युगपद्वथाप्तिरङ्गानाम् कह कर इसी विचार को व्यक्त किया है इसकी सर्वांग सुन्दरी व्याख्या में अरुणदत्त ने___ युगपत्-तुल्यकालं, अङ्गानां व्याप्तिः-शिरःप्रभृतीन्यङ्गानि सन्तापेनैककालं व्याप्यन्ते । न तु वातज्वर इवागमादीनां वैषम्यमिति व्याप्तिग्रहनेन द्योतयति । वही विचार व्यक्त किया है जो हमने ऊपर प्रदर्शित कर दिया है।
पित्त का द्रवत्व गुण उसे गरों ओर फैलने में बहुत सहायता देता है। जिस प्रकार स्वतन्त्र नाडीमण्डल के द्वारा निकली हुई एड्रीनलीन एकदम सम्पूर्ण शरीर में व्याप्त हो जाती है या जैसे इलेक्शन की सुई के द्वारा रक्त में प्रविष्ट ओषधि का सम्पूर्ण
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