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विकृतिविज्ञान दिये हैं और उनकी संख्या २० के आसपास है। हारीत ने कुल २६ लक्षण माने हैं। उग्रादित्य २१ लक्षण लिखे हैं। वसवराजीय में २२, अंजन निदान में ८ तथा वैद्यविनोद में १० ही लक्षणों से पित्तज्वराभिव्यक्ति मानी गई है।
पित्तज्वर के लक्षणों के सम्बन्ध में विशद विचार प्रस्तुत करने के पूर्व यह अप्रासङ्गिक न होगा कि हम उन लक्षणों का नामोल्लेख कर लें जिन्हें सभी आचार्यों ने अथवा अधिकांश ने मुक्तकण्ठ से स्वीकार कर लिया है । ये लक्षण नीचे लिखे जाते हैं
(१) अत्यधिक वेग के साथ सम्पूर्ण शरीर में ज्वर की व्याप्ति । (२) मुख की कटुता अथवा तिक्तता। (३) नासिका का पकना। (४) मुखपाक तथा मुख में दाह का होना। (५) प्यास का अधिक लगना। (६) मद । (७) भ्रम । (८) मूर्छा । (९) पैत्तिकवमन का होना। (१०) अतिसार । (११) अधिक मात्रा में स्वेद का आना। (१२) दाह की अधिकता विशेषकर हाथ पैरों, मुख और नेत्रों में । (१३) शीतलपदार्थों की इच्छा।
अब हम पित्तज्वर से सम्बद्ध विविध लक्षणों की ओर अपने पाठकों को ले चलते हैं ताकि वे उनकी व्याख्या ठीक से समझते हुए पित्तज्वर के साथ अपना घनिष्ट सम्बन्ध जोड़ लें।
इस सम्बन्ध में सर्वप्रथम हम 'युगपदेव केवले शरीरे ज्वरागमनमभिवृद्धिर्वा' इस चरकोक्त वाक्य को लेते हैं। परन्तु इस वाक्य का विचार करने के पूर्व हमें चरक ने पित्तज्वर के सम्बन्ध में जो निम्नलिखित पृष्ठभूमि तैयार कर दी है उसे भूल नहीं सकते क्योंकि उसी की सहायता से पित्तज्वर के विविध कारणों को और उनके द्वारा उत्पन्न लक्षणों को समझा जा सकता है__उष्णाम्ललवणक्षारकटुकाजीर्णभोजनेभ्योऽतिसेवितेभ्यः तथा तीक्ष्णातपाग्निसन्तापश्रमक्रोधविषमाहारेभ्यश्च पित्तं प्रकोपमापद्यते । तद्यथा प्रकुपितमामाशयं प्रविशत् एवोष्माणमुपसृजदाद्यमाहारपरिणामधातुं रसनामानमन्ववेत्य रसस्वेदवहानि स्रोतांसि पिधाय द्रवत्वादग्निमुपहृत्य पक्तिस्थानादुष्माणं बहिर्निरस्य प्रपीडयत् केवलं शरीरमनुप्रपद्यते, तदा ज्वरमभिनिवर्त्तयति ।
गरम, खट्टे, नमकीन, खारे, चटपटे पदार्थों के अतिमात्रा में बराबर प्रयोग करते चले जाने से, अथवा अजीर्ण से पीडित होने पर इनके कुपथ्यकारी द्रव्यों के प्रयोग करते चले जाने से अथवा उष्णादि पदार्थों के अधिक सेवन से अथवा अजीर्ण पर भी भोजन करते रहने पर तथा तीक्ष्ण धूप या अग्नि से लगातार सन्तप्त होते रहने से, अधिक श्रम करने से, विषमाशन करने से अथवा अन्य अनेक कारणों से जिनका उल्लेख पीछे हो चुका है पित्त प्रकुपित हो जाता है । वह कुपित पित्त आमाशय में जाकर जठराग्नि को उपसृष्ट करके आहार से उत्पन्न सर्वप्रथम धातु रस के साथ जाकर रसवहस्रोतसों तथा स्वेदवहस्रोतसों को बन्द करके तथा पित्त के स्वाभाविक गुण द्रवत्व के कारण जाठराग्नि को नष्ट करके पक्तिस्थान से ऊष्मा को बाहर निकाल कर सम्पूर्ण शरीर को प्रपीडित करता हुआ ज्वरोत्पत्ति कर देता है।
उष्णाम्ललवणक्षारकटुकादि पदार्थों के निरन्तर प्रयोग करने से पाचक पित्त का अधिक कुपित हो जाना स्वाभाविक है। कुपित पित्त का आमाशयस्थ जठरानल को
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