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विकृतिविज्ञान में चक्रपाणिदत्त ने मौनावलम्बन कर रक्खा है। अष्टांगहृदय में भी इनका वर्णन नहीं मिलता तथा कुछ विद्वान् धातुगतज्वरों को अनार्ष मानते हैं । जेज्जट ने भी इस विषय पर कुछ नहीं लिखा।
सुश्रुत की डल्हण द्वारा प्रदत्त निबन्धसंग्रह नामक टीका में धातुगत ज्वरों का वर्णन आरम्भ करने के पूर्व अच्छा वर्णन इस प्रकार किया गया है।
केचिदत्र रसादिधातुगतज्वरस्य लक्षणं पठन्ति-- 'रसस्थे तु ज्वरे वत्स लक्षणानि निबोध मे। गुरुत्वं दैन्यमुत्वलेशः सदनं धरोचकौ ॥ रागोष्णपिटिकास्तृष्णा सरक्तं ष्ठीवनं भ्रमः । दाहो मूर्छाऽरुचिश्छर्दिः प्रलापो रक्तसंस्थिते ।। पिण्डिकोद्वेष्टनं तृष्णा सृष्टमूत्रपुरीषता । ऊष्मान्तर्मोहविक्षेपौ ग्लानिः स्यान्मांसजे ज्वरे । वेगस्तीव्रः पिपासा च मूर्छा छर्दिः प्रलापकः । गन्धस्य चासहत्वञ्च मेदःस्थे ग्लान्यरोचकौ ।। विरेकवमने चोभे त्वस्थिमेदः प्रकूजनम् । विक्षेपणञ्च गात्राणां श्वासश्चास्थिगते ज्वरे ।। हिका कासो महाश्वासस्तमसश्च प्रवेशनम् । मर्मच्छेदो बहिःशैत्यं दाहोऽन्तश्चैव मज्जगे ।। तस्मान्मरणमाप्नोति शुक्रस्याप्युपसर्पणे । शेफसः स्तब्धता मोक्षः शुक्रस्य तु विशेषतः ।।' इति ।
एतच्च न पठनीयम् । कुतः १ यतः सर्वशरीरं सन्ततेन व्याप्तं सततादिभिश्च रसादिधातव इति कुतोऽपरो रसादि धातुगतज्वरावकाश इति रसादिस्थज्वराणां पाठो न पटनीय एवेति जेज्जटाचार्याभिमतम् । श्रीगयदासाचार्येण चायं पाठोऽन्यादृशः पठितो व्याख्यातश्च, तन्मतानुसारिभिरस्माभिरपि पठ्यते व्याख्यायते च ।।
इसका अर्थ यह है कि जब सन्ततं रसरक्तस्थः इत्यादि वाक्यों को देखते हुए रस रक्तादि धातुओं में सन्ततादि ज्वरों का निवास पहले ही कह दिया गया तो फिर पृथक से धातुगत ज्वर कहाँ से आ गये । अर्थात् रसगत ज्वर सन्ततज्वर होगा तथा रक्तगत ज्वर सततज्वर होगा फिर इन ज्वरों के अतिरिक्त कौन स्थान में धातुविशिष्ट ज्वर होंगे अतः उन्होंने धातुगत ज्वरों को विषम ज्वर व्यतिरिक्त कुछ भी पृथक से नहीं माना। पर अन्य आचार्यों ने यह स्पष्ट देखा कि रसादि धातुओं में जहाँ सन्ततादि ज्वर निवास करते हैं वहाँ स्वयं रसादि धातुओं के अपने ज्वर भी बनते हैं। उनके अपने लक्षण होते हैं जो एक दो दिन छोड़ कर नहीं आते जैसा कि विषम ज्वरों में मिलता है अपि तु निरन्तर पाये जाते हैं । सन्ततादि ज्वरों में रसादि धातुओं का विनाश उतना नहीं होता जितना धातुगत ज्वरों में देखा जाता है। अतः गयदासाचार्य या भगवान् पुनर्वसु या बाद के व्यक्तियों ने धातुगत ज्वरों की कल्पना को ठीक माना हो और उसी दृष्टि से वे आगे बढ़े हों तो यह कोई असंगत वार्ता नहीं हो सकती। दृष्टिकोणों में अन्तर के साथ प्रत्यक्ष अन्तर होने पर दोनों के दो मत हो सकते हैं।
अष्टविधज्वर सप्तविधधातुगत ज्वरों का वर्णन कर देने के उपरान्त अव हम अष्टविध ज्वरों का वर्णन आरम्भ करते हैं । ये ज्वर बहुत महत्त्वपूर्ण माने गये हैं । इन ज्वरों को साधारण भाषा में दोषी ज्वर के नाम से पुकारते हैं। दोषी बुखार या दोषजन्य ज्वरों के चरक ने ८ भेद माने हैं । दोषों के अनुसार ज्वर की कल्पना आयुर्वेद की अपनी एक विशिष्ट देन है। ये ज्वर समाज में बहुधा देखे जाते हैं। इसके जो भी लक्षण आगे बतलाये
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