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ज्वर
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शेष ६ धातुओं का पोषण करती है उस रसधातु को प्रकुपित वायु विकृत कर देती है तथा रसवाही और स्वेदवाही स्रोतसों की ओर गमन करती हुई उनके मुखों को रोककर उनके द्वारा अभि का निष्क्रमण नहीं होने देती । वह जो पचनस्थान में स्थित ऊष्मा रही वह वहाँ कम होने लगती है और सम्पूर्ण शरीर में त्वचा के नीचे बाहर की ओर फैलने लगती है और ज्वरोत्पत्ति कर देती है ।
ज्वरोत्पत्ति की उक्त कल्पना निराली कही जा सकती है आधुनिकों की निराली बुद्ध के कारण अन्यथा यह सरलतम होते हुए सभी प्रश्नों का सर्वोत्तम और संक्षिप्ततम उत्तर है।
वातज्वर के विविध लक्षण जो चरकसंहिता में वर्णित हैं उनका विचार करने पर सर्वप्रथम विषमारम्भ का लक्षण मिलता है । वातज्वर सदा विषम आरम्भ करता है । अर्थात् कहीं तो यह बहुत तेजी से आता है और कहीं धीरे से । इसका आना कभी तो १०३-४-५ तक का ज्वर पहले पहल कर देता है और कभी ९९-१०० से अधिक नहीं हो पाता । एक रोगी में उसका आरम्भ तेज बुखार से होता है तो दूसरे में हलके ज्वर के साथ भी वातज्वर उत्पन्न हो जाता है । एक ही रोगी में भी किसी दिन यह तेजी के साथ आता है और किसी दिन हलका चढ़ता है। ज्वर चढ़ने में जो विषमता है वही विषमता उसके विसर्ग काल में भी देखने में आती है । विषम विसर्गिता इसी का नाम है । किसी रोगी को ज्वर एकदम दारुण्य के साथ उतर जाता है और किसी किसी में धीरे-धीरे उतरता है । एक ही रोगी में एक दिन ज्वर धीरे से और दूसरे दिन तेजी या झटके से भी उतर सकता है। विषयारम्भविसर्गित्वम् का कारण देते हुए गंगाधर ने वायोरस्थिरत्वस्वभावात् लिखा है । वायु के स्वभाव की अस्थिरता ही वातज्वर के विषमारम्भ या विषम मोक्ष की करने वाली है । वायु की अस्थिरता के कारण विमारम्भ का एक अर्थ यह भी किया जाता है कि कभी ज्वर सिर से उठे और कभी पैरों से । अरुणदत्त ने आगमापगम का अर्थ करते हुए इसी को कहा भी है।
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आगमादीनां वैषम्यमनिलज्यरे लिङ्गमिति योज्यम् । ज्वरस्यागमः सन्तापारम्भः, तस्य वैषम्यं शिरःप्रभृतीनामङ्गानां न युगपत्सन्तापः अपि तु कदाचिदस्य शिरसि पूर्वमागच्छति कदाचिदंसयोगपादयोर्वेति । अपगमो-ज्वरस्य मोक्षः तस्य वैषम्यं कदाचिदस्य पूर्वे पादयोः सन्तापमोक्षः कदाचित्रिके कदाचिच्छिसि सन्तापस्य मुक्तिरिति ।
उष्मणो वैषम्यम् - ज्वर के तापांश ( temperature ) में परिवर्तन या विषमता पाई जाती है । इसी को वाग्भट ने क्षोभ और मृदुता माना है । क्षोभ ज्वराधिक्य और मृदुता ज्वल्पता के द्योतक शब्द हैं । ज्वर के तीव्रतनुभावों की विषमता के पीछे भी वायु है और वायु की अस्थिरता को ही इन सब लक्षणों का कारण मान कर चक्रपाणिदत्त भी चला है
एतत् सर्वं वायोरनवस्थितत्वेनोपपन्नम् ।
क्षोभ और मृदुता को चरक ने तीव्रतनुभाव रूप में लिया है ।
वेदनावैषम्य - शूल की विषमता को अनेक विधोपमाश्चलाचलाश्च वेदनाः चरक
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