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विकृतिविज्ञान ने कहा है। आयुर्वेद सूत्रकार ने अङ्गपीडन मात्र कहकर छोड़ दिया है और उसके टीकाकार ने सर्वाङ्गानामतिपीडनं करोति कह कर उसकी व्याख्या कर दी है। अत्यधिक पीडा होना अथवा विषमरूप से पीडा होना इन दोनों में भेद है । पर क्योंकि अधिक वेदना का ही उल्लेख प्रायशः होता है अतः मुख्य कष्टकर व्यथा का उल्लेख आयुर्वेद सूत्रकार ने किया है । पर चरकादि ने वेदना की विषमता को लिख कर वेदना की वास्तविक प्रकृति की ओर इङ्गित किया है। इन्दु ने अपनी शशिलेखा टीका में
वेदनानामूष्मणां च वातवशात्कदाचिदागमो भवति कदाचिदपगमः।। कह कर वास्तविकता को स्पष्ट किया है। कहने का सारांश यह है कि वातज्वर में वेदनाओं की विषमता रहती है। कभी वह डटकर देखी जाती है और कभी शान्त हो जाती है । वेदना कभी किसी अंग में होती है और कभी किसी अंग में। जिस अंग में एक बार वेदना होती है वह दूसरी बार नहीं होती । वहाँ कभी कम और कभी अधिक उस रूप में उठती है। यही नहीं एक अंग में आज वेदना है तो कल उसमें बिल्कुल नहीं मिलती यह सब वायु की अनवस्थितता या अस्थिरता का ही मूर्त प्रमाण कहा जा सकता है।
वेदनाओं के विभिन्न स्वरूप हैं। सुश्रुत ने जिसे गात्ररुक कह कर छोड़ दिया है उसे चरक और वाग्भट ने प्रत्येक गात्र में किस-किस प्रकार की वेदना होती है इसका वाक्चित्र उपस्थित किया है। हारीत ने गात्रभङ्ग ही कहा है। उग्रादित्य ने गात्रवेदना मात्र कहा है। वसवराजीयकारने उसे सर्वाङ्गदुखम् माना है। इन सबने सम्पूर्ण शरीर में साधारणतया तथा विशिष्ट-विशिष्ट शरीराङ्गावयवों में विशेषतया शूल की या व्यथा की उपस्थिति स्वीकार की है। अतः कोई आश्चर्य नहीं कि वातज्वरी को सम्पूर्ण शरीर में थोड़ी या बहुत पीडा होती हो। प्रत्यक्ष में भी रोगी यही कहता है कि उसके सब अंग फटे जाते हैं । भवन्ति विविधाः वातवेदनाः कह कर बहुत प्रकार की वेदनाओं की कल्पना भी शास्त्रकारों ने मानी है। शशिलेखाकार ने वेदनाओं की प्रतीति की उग्रता और मन्दता को देहविशेष, देशविशेष और कालविशेप के आधीन माना है।
अनेकविध और अनेक उपमाओं से युक्त चल वा अचल वेदनाओं का जो रूप दिया गया है उसकी ओर दृष्टिपात करने से सर्वप्रथम हमें पादयोः सुप्तता का ध्यान आता है जिसे वसवराजीयकार ने पदातिशूलम कहा है। गंगाधर ने सुप्तता का अर्थ स्पर्शानभिज्ञता किया है जो यथार्थ है। पादसुप्तता के स्थान पर उग्रादित्य ने स्तब्धातिसुप्ततनुता कह कर सम्पूर्ण शरीर को ही सुप्त या स्पर्शभाव से शून्य मान लिया है। अरुणदत्त ने पादयोः सुप्तता का अर्थ
पादयोः सुप्तिः-निश्चेतनत्वम् नखक्षतादिकमपि न चेतयेतां तावित्यर्थः । पैरों में निश्चेतनता का होना अथवा उनका स्तब्ध या सोया हुआ होना वातज्वरी की एक साधारण घटना है। साधारण होने के ही कारण उसका उल्लेख सभी आचार्यों ने बहुत महत्त्व के साथ नहीं दिया है। फिर भी पैर सुन्न हो सकते हैं स्तम्भन उनमें हो
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