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विकृतिविज्ञान का हेतु है तथा सर्वांगीण शरीर व्यापी व्यानवायु के कोप का परिणाम भी है। भारतवासियों के सम्पूर्ण रोगों में से अधिकांश की उत्पत्ति में वेगविधारण एक प्रधान कारण आयुर्वेदज्ञों ने मान लिया है। मलोत्सर्जन की क्रिया पर मानसिक भावों का विशेष प्रभाव होता है। पर जब मन पर वातज्वर का प्रत्येक क्षण प्रभाव पड़ता हो एक के पश्चात् एक गम्भीर और दुःखद घटना उत्पन्न हो रही हो तो मलोत्सर्ग होना कदापि सम्भव नहीं होता। शरीरस्थ रूक्षता भी विष्टम्भकारिणी हुआ करती है। रूक्षता का परिणाम शुष्कता में होता है अतः वसवराजीयकार का मलमूत्रशुष्कः लिखना संगत है।
मूत्र और पुरीष का क्लृप्तीभाव जो चरक ने लिखा है उसका अभिप्राय मूत्र और पुरीष की अप्रवृत्ति या प्रचलेच्छाभाव करना चाहिए । अर्थात् बस्ति में मूत्र रहता है
और मलाशय में मल मौजूद है पर वात के प्रकुपित होने के कारण बनी अन्यमनस्कता ने स्वाभाविक स्थिति को बिगाड़ दिया है अर्थात् योग्य राजा की कमी के या शिथिलता के अथवा रुग्णता के कारण मेहतरों ने हड़ताल करके शरीर वातावरण को अत्यधिक दूषित करने में कोई कोर कसर उठा नहीं रखी। इस क्लृप्तीभाव को हटाना चिकित्सा का परम प्रथम लक्ष्य होना चाहिए। इसी को ध्यान में रख कर वातजनित रोगों में इस क्लृप्तीभाव को मिटाने के लिए विरेचन बस्ति आदि विविध उपायों को प्रधानता दी गई है।
मल के क्लृप्तीभाव के कारण मल में सडाँघ उत्पन्न होकर वायु की वृद्धि का प्रत्यक्ष परिणाम आध्मान में हुआ करता है। आध्मान के साथ उदरशूल पाया जाता है। अतः इन दोनों लक्षणों को सुश्रुत ने लिखा है। उग्रादित्याचार्य ने भी माना है परन्तु अन्य आचार्यों ने इसे महत्त्वपूर्ण नहीं माना अतः उल्लेख स्पष्टतया नहीं कर सके।
वेगविधारण के कारण अथवा मलसंचलन की अप्रवृत्ति के परिणामस्वरूप कण्ठोष्ठपरिशोषणम् या मुखतालुकएठशोषः हो जाता है। सर्वाङ्गीण रूक्षता रहने के कारण तथा मलमूत्र की अप्रवृत्ति से उत्पन्न बेचैनी या विषमयता के कारण मुख, ओष्ठ और गला सूखने लगता है अर्थात् इन स्थानों पर आर्द्रता वा स्निग्धता की कमी व्यक्त होने लगती है। ___ कण्ठ में शुष्कता होने पर पिपासा बढ़ती है इस कारण तथा सर्वाङ्गीण रौक्ष्य के कारण भी तृष्णा वातज्वरी का एक सर्वसाधारण लक्षण बन गया है। जाड़े की रात में जैसे कभी कभी स्वस्थ व्यक्तियों को प्यास लगती है उसी प्रकार की प्यास यहाँ 'पाई जाती है। रोगी को जब प्यास लगती है तो पर्याप्त और जब नहीं लगती तो बिल्कुल नहीं । इसी से जहाँ चरक और वृद्ध वाग्भट ने इसे लिखा है अन्यों ने इसका उल्लेख करना भी आवश्यक नहीं माना। ____ दन्तोष्ठभागे त्वचि कृष्णवर्णम् अथवा परुषारूणवर्णत्वं नखनयनवदनमूत्रपुरीषत्वचाम् वा रूक्षारुण्त्वगास्याक्षिनखमूत्रपुरीषता या कृष्णकररुहाम् किं वा
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