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विकृतिविज्ञान इस कारण वातिक ज्वर कभी-कभी दुश्चक्र के कारण एक भयानकरूप भी धारण कर लेता है जिसका आभास वसवराजीयकार ने दिया है। अरोचक का लक्षण वातिक ज्वर के पूर्वरूप का लक्षण होने के कई शास्त्रकारों ने उसका वर्णन किया भी नहीं है पर जिन्हों ने इस विषय का यथेष्ट ऊहापोह किया है उन्हों ने इसे नहीं भी छोड़ा।
वाग्भट ने प्रसेकारोचकाश्रद्धाविपाक ये चार लक्षण गिनाए हैं। इनमें अरोचक और अश्रद्धा के भेद पर अरुणदत्त ने जो प्रकाश डाला है वह बहुत स्पष्ट है___ अरोचकाश्रद्धयोः को विशेषः ? ब्रूमः । अरोचकेन वक्त्रस्थमपि न मुझे। अश्रद्धया तु केवलं नाभिलपति मुखस्थं तु भक्षयत्येवेति विशेषः। अरोचक को हेमाद्रि ने जिह्वेन्द्रियाप्रवृत्ति तथा श्रद्धा को मनःप्रवृत्ति माना है । अरोचक में मुख में रखा हुआ अन्न खाया नहीं जाता और अश्रद्धा में मुखस्थ अन्न का भक्षण कर लिया जा सकता है पर अन्न के मुख में आने के लिए कोई उत्साह नहीं होता। चरक का अन्नरसखेद और अश्रद्धा एक ही कोटि में आ सकती हैं। अन्न के रस या आस्वादन मात्र से खेद होना अश्रद्धा का ही प्रमाण है इसे अनन्नाभिलाषा कह सकते हैं।
मनोन अनेक कारणों की उपस्थिति न केवल अनन्नाभिलाषा ही उत्पन्न करती है अपि तु अविपाक का भी कारण बनती है। मनोविचारों या मनोविकारों का अन्न के पचन पर कितना प्रभाव पड़ता है उसे रूसी विद्वान् पावलोव से पूछिए। उसने यह सिद्ध किया है कि आमाशय का पाचक रस मनोविकारों की उपस्थिति में बहुत कम या बिल्कुल ही नहीं बना करता। अतः आश्चर्य नहीं कि अन्न के प्रति अश्रद्धा होने अथवा अरुचि होने के कारण आमाशय में पाचक रसों की उत्पत्ति का अभाव हो जावे और अन्न का विपाक न हो सके ।
विषादिता या विषण्णता वात ज्वर में कोई अनहोनी घटना नहीं है। सम्पूर्ण शरीर के अंगप्रत्यंग में जिस समय वेदना रहती हो भोजन में कोई श्रद्धा न हो ज्वर कभी चढ़ता और कभी उतरता हुआ रहता हो तो इन मनोघ्नकारणों की उपस्थिति में अत्यधिक विषादावस्था हो जाना अस्वाभाविक नहीं हो सकता। इसी कारण वातज्वर से पीडित व्यक्ति प्रलाप कर उठता है बकने लगता है। मैं जा रहा हूँ मैं नहीं बनूंगा, बच्चों को कौन देखेगा पीछे क्या होगा आदि निरर्थक बातें उसे सूझा करती हैं । इस विषाद को बढ़ाने में दो घटनाएँ और भी बड़ा कार्य करती हैं जिनमें एक है हृदयग्रह की जिसके कारण हृदय के क्षेत्र में जकड़न या शूल रहता है जो विषाद की मात्रा को चरमावस्था तक ले जा सकती है हृदयावसाद जिसका कि मूर्तरूप बनता है और दूसरी अस्वेदता जो बहुत अधिक घबराहट उत्पन्न कर देती है।
विषाद के ही परिणामस्वरूप विनाम नामक लक्षण पाया जाता है । विनाम को गंगाधर ने नतशिरस्तम् माना है अर्थात् इसमें रोगी का सिर झुक जाता है। यह एक दौर्बल्य विशेष कर मनोदौर्बल्य का लक्षण है। रोगी अपनी गर्दन पर सिर को साधने में असमर्थ सा हो जाता है अतः वह सिर को एक ओर लुढ़का लेता है। यह कोई
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