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विकृतिविज्ञान
माना है जो अधिक उचित है पर दोनों ही अवस्थाएँ एक ही रोगी में रोग की तीव्रतर तीव्रतमावस्था को लक्ष्य करके पाई जा सकती हैं । अरुणदत्त ने विरसास्यता 'अव्यक्तरसत्वं मुखस्य भवति येन मधुराद्यन्यतमं रसं न निश्चिनोति अथवा कषायरसत्वं वक्त्रस्य' लिखकर विषय को बहुत अधिक स्पष्ट कर दिया है । इन्दु ने आस्यरसत्वं विशेषोनाख्येयदुष्टरसत्वम् माना है ।
हृदयग्रह नामक लक्षण वातज्वर में भी पाया जा सकता है । यह चरक मानता है। सुश्रुत ने इसी को हृद्रुक कहा है । वाग्भट ने भी हृद्ग्रह स्वीकार किया है । उग्रादित्याचार्य के विचार से हृदय में अत्यधिक वेदना होती है । इस प्रकार हृदय और वातज्वर का समीपतम सम्बन्ध जुड़ जाता है । गंगाधर के मत में हृदयग्रह को वक्षग्रह मानना बतलाया है । परन्तु वाग्भट ने हृदयस्य ग्रहस्तोदः प्राजनेनेव वक्षसः लिखकर हृद्ग्रह और वक्षसः प्रतोदन इन दो लक्षणों को लिखकर हृदय और वक्षस् के अन्दर पृथक्-पृथक् होने वाली घटनाओं का उल्लेख कर दिया है । वात के जो ८० रोग कहे गये हैं उनमें हृद्ग्रह का उल्लेख नहीं । इस लक्षण से हृदयदेश में जकड़न या पीड़ा लिया जा सकता है । हृत्प्रदेश में शूल होना यह एक सर्वसाधारण लक्षण है जो वातज्वर में मिल सकता है । अत्यधिक शूल का होना साधारणतया नहीं मिला करता पर किसी-किसी में मिल भी सकता है ।
शुष्कच्छर्दि या छर्दि का वेग मात्र उत्पन्न होना जिसे साधारण भाषा में जी मिचलाना या मतली आना कहते हैं वातज्वर में पाया जाने वाला लक्षण है । इसका कारण यह है कि मुख की विरसता अथवा कषायता पाई ही जाती है । विष्टम्भ और अरुचि बराबर बनी रहती है तथा वात के प्रकोप के कारण उत्पन्न शैत्य से श्लेष्मा की वृद्धि को थोड़ा प्रोत्साहन मिल जाता है इसी प्रोत्साहन का उपलक्षण सूखी हुलकारों का आना माना जाता है । शंखप्रदेश में जब निस्तोद होता है तब वमन या हल्लास बहुधा पाया जाता है । यह निस्तोद वातज्वर में तो अवश्यमेव मिलता है । हेमाद्रि ने आयुर्वेद रसायन नामक टीका में शुष्क के लिए श्लेष्मविरहित अर्थ दिया है । श्लेष्मा के प्रकोप में श्लेष्मराहित्य का क्या अभिप्राय यह प्रश्न किया जा सकता है। उसका अर्थ इतना ही है कि यदि श्लेष्मा के पूरे वेग का परिणाम होना होता तो वमन ही होती शुष्क वमन न होती अतः वातिक शैत्य के कारण श्लेष्मा का स्पर्शमात्र ही होता है जो मतली का कारण है ।
शुष्ककास का होना भी वातिकज्वर में चरक, सुश्रुत और वाग्भट तीनों ने स्वीकार सा कर लिया है । वात के प्रकोप के कारण जो खांसी आती है उसमें कफ नहीं निकलता । इसका अर्थ यह भी हुआ कि जिन सज्वर रोगों में उनमें ज्वर वातिक ही हुआ करता है । साधारण ब्रोंकाइटिस में वहाँ जो ज्वर साथ में आता है वह वातिक स्वरूप का ही अधिकांशतः देखने में आता है। गारनिविग्रह वाति ज्वर का एक महत्त्व का लक्षण माना जाता है। रोगी
सूखी खाँसी आती है सूखी खाँसी आती है
को न छींक आती है और न डकार । अर्थात् उसे प्रतिश्याय से पूर्व की अवस्था बन
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