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३६७ जाती है अथवा बहुत कब्ज वाले रोगी का सा स्वरूप हो जाता है। वातिक ज्वर के रोगी को इन दो वेगों की प्रवृत्ति ही नहीं होती। सुश्रुत ने क्षवस्तम्भ कह कर इसी को पुकारा है । क्षवथु (छींक) के वेग को रोकने से जो विकार उत्पन्न होते हैं वे सभी वातिक हैं
मन्यास्तम्भः शिरःशूलमर्दितार्धावभेदकौ । इन्द्रियाणां च दौर्बल्यं क्षवथोः स्याद्विधारणात् ॥ इसी प्रकार उद्गार के वेग को रोकने पर भी घोर वातिक विकार ही हुआ करते हैं:
कण्ठास्यपूर्णत्वमतीव तोदः कूजश्चवायोरथवाऽप्रवृत्तिः।
उद्गारवेगेऽभिहते भवन्ति घोरा विकाराः पवनप्रसूताः॥ जब इन वेगों के रोकने से परिणाम वातिक विकारों की उत्पत्ति में होता है तो जिस रोग में ये दोनों स्वयमेव ही पाये जाते हैं वह वातिक न होकर और क्या हो सकता है । अतः वातिक ज्वर में इन दोनों के वेगों का रोध पाया जाना गैर स्वाभाविक नहीं है। यह ज्वर का आश्चर्य करने की कोई आवश्यकता नहीं है कि अशीतिर्वात विकार में अत्युद्गारः शब्द का उल्लेख हुआ है क्योंकि उद्गार की क्रिया का नियन्ता वायु है अतः उसके कारण कभी उद्गारबाहुल्य और कभी उद्गारवेगावरोध दोनों में से कोई भी हो सकता है। - जम्भात्यर्थम् अथवा जम्हाइयों का बहुत आना एक मानी हुई घटना है जो वातिक ज्वर में पाई जाती है। ज्वर के पूर्वरूपों का जहाँ माधवकर ने वर्णन किया है वहाँ साधारण और असाधारण दो प्रकार के पूर्वरूप दिये हैं। इनमें जम्भाऽङ्गमर्दो गुरुता के द्वारा साधारण पूर्वरूपों में भी तथा जम्भात्यर्थं समीरणात् द्वारा विशेषपूर्वरूपों में भी जम्हाइयों की अधिकता या बार बार जम्हाइयों के आने का वर्णन कर दिया गया है । वातजन्य विकारों में विशेष करके जब वे सज्वर हो जम्भा के अधिक आने का लक्षण बार-बार देखा जाता है। . ___अन्नरसखेद, प्रसेक, अरोचक और अविपाक ये चार लक्षण लगभग एक संस्थान की ओर ही इङ्गित करते हैं जिसे हम पचनसंस्थान कहते हैं । अन्न के रस में कोई स्वाद नहीं आता, मुख से लालास्राव बहुत होता है । इस स्राव पर मनोवैज्ञानिक विषाद अवसादादि कारणों का प्रभाव रहता है इस कारण इसमें अन्न को पचाने की शक्ति का अभाव रहता है। मुख में विरसता तथा कषायता बराबर बनी रहती है इस कारण अन्न के प्रति सहज स्वाभाविक पाई जाने वाली रुचि समाप्तप्राय हो जाती है रुचि के नाश में वात का कितना बड़ा हाथ रहता है उसे व्यक्त करते हुए चरक लिखते हैं:
वातादिभिः शोकभयातिलोभनोधैर्मनोनाशनरूपगन्धैः। तथा कषाय वक्त्रश्च मतोऽनिलेन कह कर उन्होंने कषायवक्त्रता द्वारा तथा शोकादि मनोन्न कारणों द्वारा अरुचि की स्थापना की है। वातिक ज्वर में ये सभी कारण थोड़े या बहुत पाये जाते ही हैं इस कारण अरोचक का होना इस ज्वर में कोई कठिन बात नहीं है। यह भी स्मरण रखना चाहिए कि अरुचि के कारण भोजन की अनिच्छा रहती है तथा न खाना या लंघन करना सदैव वातिक लक्षणों को तेज करता जाता है
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