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विकृतिविज्ञान वर्ष की दृष्टि से विचार करने पर वातज्वर का प्रधान काल धर्मान्त अर्थात् वर्षा माना गया है। शीतकाल या वह समय जब आकाश मेघाच्छन्न हो अथवा वायु का वेग विपुल गति के साथ चल रहा हो तब भी वातज्वर देखा जा सकता है। वर्षाऋतु में वात के प्रकोप के अनेक कारण एकत्र हो जाते हैं। अतः इस ऋतु में वातिक विकार विशेष रूप से देखे जाते हैं। अतः कोई आश्चर्य नहीं कि वातोत्तेजक इस वातावरण में वर्षा की फुहारों के बीच से वातज्वर निकल कर प्राणियों को कष्ट प्रदान कर दे। __शवयोनिस्तोदः अर्थात् दोनों ओर के शंखप्रदेशों अथवा कनपटियों में तुदनवत् पीडा.का होना । यद्यपि वातजनित वेदनाओं के साथ इसका उल्लेख किया जा सकता था फिर भी शिरोव्यथा इस रोग की अत्यन्त महत्त्व की घटना होने से इसे हमने स्वयं पृथक् लिखा है तथा कई आचार्यों ने भी इसकी गणना पृथक से की है। सम्पूर्ण वात. संस्थान का प्रधान केन्द्र मस्तिष्क है । वहाँ से वातनाडियों का उदय होता है। वहीं सम्पूर्ण आदेश प्रदान किये जाते हैं तथा वहाँ सम्पूर्ण बाह्य जगत् की अनुभूतियाँ भी प्राप्त होती हैं। वायु के प्रकोप का जो इतिहास जानते हैं वे यह भले प्रकार जान सकते हैं कि वाततत्वभण्डार मस्तिष्क इस प्रकोप से कदापि अछूता नहीं रह सकता।
। अस्तु शंखप्रदेश में तोद होना या शिरोरुक होना स्वाभाविक है। निस्तोद का अर्थ निःशेषतो वेदना इति माना जाता है। वाग्भट ने शडयोमूनिवेदना के द्वारा शिर तथा दोनों शंखप्रदेशों में वेदना का उल्लेख किया है। हारीत भी शिरसि रुक को मानता है । उग्रादित्याचार्य तो शिर में अत्यधिक वेदना का अनुभव करता है। वही वसवराजीयकार की स्थिति है ।
वातिक कारणों से उत्पन्न यह शिरोरुजा प्रायशः वातिक ही हुआ करती है। उसके लक्षण सुश्रुत ने निम्न लिखित बतलाये हैं
यस्यानिमित्तं शिरसो रुजश्च भवन्ति तीव्रा निशि चातिमात्रम् ।
बन्धोपतापैः प्रशमश्च यत्र शिरोऽभितापः स समीरणेन ॥ कि यह अनिमित्तिक, रात्रि में तीव्र रूप धारण करने वाली सिर के बाँधने या सेकने से शान्त होने वाली और रात्रि में अधिकता के साथ पाई जानेवाली होती है। यद्यपि यह अनिमित्तिक नहीं है, यहाँ उसकी उत्पत्ति के लिए प्रबल कारण उपस्थित हैं जिनका प्रत्यक्ष रूप हम वातज्वर के मूर्तिमन्त स्वरूप में पाते हैं।
निद्रानाशः निद्रा का सर्वथा नष्ट हो जाना शिरोऽभिताप के साथ सम्बद्ध ही दूसरी महत्त्वपूर्ण घटना है। रातभर सिर में दर्द जिसे रहेगा वह सो सकेगा यह सम्भव नहीं। सुश्रुत ने वातवृद्धि के लक्षण गिनाते समय निद्रानाशोऽल्पबलत्वम् आदि कितने ही लक्षणों का स्पष्ट उल्लेख किया है। वृद्ध वाग्भट ने निद्रा की उपपत्ति में___ श्लेष्मावृतेषु स्रोतस्सु श्रमादुपरतेषु च । इन्द्रियेषु स्वकर्मेभ्यो निद्रा निशति देहिनाम् ।। जो श्लेष्मावृत स्रोतों के कारण निद्रा का आह्वान किया है । निद्रा श्लेष्मतमोभवा के द्वारा भी तमोगुण और श्लेष्मा की अभिवृद्धि निद्राकारिणी होती है। पर वातज्वर में श्लेष्मा कहाँ ? तथा तमोगुण के स्थान पर सम्पूर्ण वातावरण सक्रिय अर्थात् रजोगुण
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