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ज्वर
३६३ भूयिष्ठ रहता है अतः निद्रा के लिए योग्य वातावरण का सर्वथा अभाव पाया जाता है। इसके कारण वातज्वर में निद्रानाश बहुधा रहता है। रोगी रात भर सिर दर्द से परेशान रहता है और सोता नहीं, जागरण करता है। इसके कारण रौक्ष्य की अत्यधिक वृद्धि होती है, वात का वेग और बढ़ता है और जितना ही वातस्य वेग बढ़ता है उतना ही निद्रानाश एवं शिरोव्यथा का स्वरूप अभिवृद्ध होता है। इसी को दुश्चक्र कहते हैं जिसे तोड़ना वैद्य की चिकित्सा का महत्त्वपूर्ण लक्ष्य होना चाहिए।
हारीत ने विनिद्रता, उग्रादित्य ने निद्राक्षति, वृद्ध वाग्भट और चरक ने जागरण नाम से इस रोगलक्षण का उल्लेख किया है। श्लेष्मा में शैत्य के साथ स्निग्धता होती है पर वात में शैत्य के साथ रूक्षता रहती है। अतः केवल शैत्य निद्राकारक नहीं, स्निग्धता तथा वातावरण में तमोगुण का आधिक्य होना परमावश्यक है। बहुधा यह शङ्का की जा सकती है कि रोगी जब बहुत अधिक हरकत करता है, कहीं पिण्डलियों में उद्वेष्टन होता है तो कहीं सन्धियों में विश्लेषण होता है फिर श्रमाधिक्य का परिणाम निद्रा का अभाव क्यों रहता है ? इसका स्पष्ट उत्तर यही है कि यहाँ मन पर श्रम का भाव आता नहीं। रोगी दुर्बल थका सा पाँच दिन से विना भोजन के रहते हुए भी वातदोष की सतत प्रकुपितता के परिणामस्वरूप रूक्षता से युक्त होने के कारण और अंगप्रत्यंग में वेदनाओं की विषम विभीषिका के प्रत्यक्ष नर्तन करने के कारण उसे निद्रा नामक वस्तु को पाने के लिए अवसर ही नहीं मिल पाता । हारीत ने
भीतवत्स्वपिति जाग्रतो नरो यद्यपि । कहा है पर वहाँ सोना उपलक्षण मात्र है। डरे हुए के समान झपकी लगा जाना एक बात है और सोना दूसरी बात । ___ गात्राणां रौक्ष्यमेव च लिखने वाले सुश्रुत ने शरीर के सब अंगों में रूक्षता की स्पष्ट स्थिति का उल्लेख करके निद्रानाश की सहैतुक सार्थकता का उद्घोष कर भी दिया है। चरक ने अनेकों लक्षण देते हुए और पर्याप्त गाथा गाते हुए भी इसे स्पष्ट नहीं कहा । पर उसके अनुयायी वृद्ध वाग्भट ने उसे नहीं छोड़ा उग्रादित्य जिसने आयुर्वेदीय विचारणा में एक स्वतन्त्र नीति अपनाई है इसे भी स्पष्ट किया है। ___ मलानामप्रवर्तनम् , मलमार्गातिरोध, मलमूत्रशुष्कता, विष्टम्भता या मूत्रपुरीषस्वचामत्यर्थ क्लृप्तीभाव से एक ही भाव उदित होता है कि वातज्वर से पीडित रोगी को टट्टी नहीं आती, मूत्र भी बहुत कम उतरता है। हारीत तो ह्यतिमूत्राघातः कहकर मूत्राघात की भी स्थिति को बतलाता है। पर वह अत्यधिक उत्कटावस्था का चित्रण है । वातज्वर के किसी-किसी रोगी में मूत्राघात पाया जा सकता है पर बहुधा यह लक्षण मिलता नहीं मूत्राल्पता तो निस्सन्देह पाई जाती है। परन्तु मूत्र वेग के निरन्तर रोकने से वातकुण्डलिका, वातबस्ति, मूत्रातीत, मूत्र जठरादि विकार देखे जा सकते हैं। क्योंकि 'जायन्ते कुपितैर्दोषैर्मूत्राघातास्त्रयोदश ।' के अनुसार तेरहों मूत्राघातों का आदि कारण तो दोषों का कोप ही आयुर्वेद ने माना है।
मल की अप्रवृत्ति का अर्थ विष्टम्भ में होता है। यह अपानवायु के प्रकुपित होने
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