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ज्वर
३६१ दिन के बीतने के समय अर्थात् अपराह्न काल में भी वातज्वरोत्पत्ति या वातज्वराभिवृद्धि पाई जाती है। वाग्भट ने अष्टाङ्गहृदय के आरम्भ में जो____ 'वयोअहोरात्रिभुक्तानां तेऽन्तमध्यादिगाः क्रमात्' के अनुसार दोषों का काल बतलाया है उनमें वायु का काल वय का अन्त अर्थात् बुढ़ापा, दिन का अन्त अर्थात् अपराल, रात्रि का अन्त अर्थात् अपर रात्रि या रात्रि का तीसरा पहर, भोजनान्त अर्थात् भोजन की पक्वावस्था इस प्रकार ४ को गिनाया गया है। सुश्रुतसंहिता में भी वात के प्रकोप के काल के सम्बन्ध में निम्नलिखित निर्देश किया गया है:
स शीताभ्रप्रवातेषु धर्मान्ते च विशेषतः। प्रत्यूषस्य पराले तु जीर्णेऽन्ने च प्रकुप्यति ॥ .. इसके अनुसार शीतकाल में, बादल होने पर अधिक हवा चलने पर विशेष करके गर्मी के बाद वर्षा ऋतु में, प्रत्यूषकाल वा अपराह्नकाल में तथा भोजन के पच जाने के बाद ही वात प्रकुपित होता है। कहने का तात्पर्य यह है कि दिवसान्त में तीसरे पहर पर वातज्वर की वृद्धि या उत्पत्ति वायु के प्रकोप के ठीक काल में ही होती है।
निशान्त को सुश्रुत ने प्रत्यूषकाल मान लिया है। यह रात्रि की समाप्ति से पूर्व का समय है । इस अवसर पर वायु का वेग स्वभावतः अधिक रहने के कारण वातज्वर की उत्पत्ति या वृद्धि सदैव सम्भव है।
अतः अब यदि योग्य विचार का आश्रय लिया जावे तो यह कहना कदापि अयुक्तियुक्त न होगा कि वातज्वर दिन रात के २४ घण्टों में या तो दिन के तीसरे प्रहर अथवा रात्रि के तीसरे प्रहर में बढ़ता है। वह दो समय भी बढ़ सकता है। भोजन के जीर्ण होने की दृष्टि से कोई यह भी कह सकता है कि वह दो बार भोजन जीर्णावस्था में और दो बार दिवसान्त और निशान्त में यह बढ़ सकता है अधिक भार इसलिए नहीं ले जाता क्योंकि प्रातः १० बजे तक किया हुआ भोजन दिन के तीसरे प्रहर में ही पच पाता है तथा सायंकालीन भोजन रात्रि के तीसरे प्रहर तक ही पच पाता है अतः दिवसान्त और निशान्त ये दो अवसर ही वातज्वरोत्पत्ति या वातज्वराभिवृद्धि के उचित काल हुआ करते हैं। चक्रपाणिदत्त ने - यच्च वायोर्जरणान्तदिवसान्तादिपु बलवत्कार्यकर्तृत्वं प्रोक्तम् , तदपि प्रायिकत्वेन ज्ञेयम् । कह कर बड़ा उपकार कर दिया है। निशान्त या दिवसान्त ये शब्द प्रायिक हैं । इन समयों में वायुवेग की वृद्धि होने के कारण प्रायः इसी समय ज्वरोत्पत्ति होती है। प्रायः कह देने से अन्य कालों को मिटाया नहीं जा सकता अर्थात् अन्यकालों में भी वातज्वर का आगमन मिल सकता है तथा कहीं-कहीं और कभी-कभी तो निशान्त अथवा दिवसान्त बिल्कुल छूट जा सकते हैं और अन्य कालों में वात के प्रकोप के अन्य कारणों की अधिकता होने के कारण वातज्वर की वृद्धि या उत्पत्ति देखी जा सकती है । रात्रि को श्लेष्मकाल माना गया है। शीत की अतिशयता जहाँ रात्रि में श्लेष्माभिवर्द्धक होती है वहाँ शीत वायु का प्रकोपक भी माना जाता है जिसके कारण सन्ध्या के तीसरे पहर और रात्रि के तीसरे प्रहर में शैत्यानुबन्धन भी वातप्रकोप के लिए आहूत कर सकता है।
३१, ३२ वि०
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